आधुनिक हिंदी पर निबंध

आधुनिक हिंदी पर निबंध (दुर्गा पूजा)

भारत तीज- त्योहारों का देश है । वर्ष की विभिन्न ऋतुओं में कई प्रकार के पर्व मनाएँ जाते हैं । वर्षा ऋतु के बाद शरद् ऋतु का महान् पर्व दुर्गा पूजा है । दुर्गा पूजा पर्व को विजया दशमी दशहरा भी कहा जाता है ।


प्रति वर्ष आश्विन शुक्ल सप्तमी से दशमी तक यह मनाया जाता है । इस समय आसमान में बादलें के चप्पे चप्पे बादल दिखाई देते हैं । पर आकाश स्वच्छ रहता है । वर्षा का असर नहीं होता । चारों ओर हरियाली, खेत में लहलहाती फसलें, सभी ओर स्वच्छता, रास्ते सुगम और प्रकृति प्रफुल्ल रहती है । न शीत का प्रकोप और न गरमी का असर होता है । ऐसे ही सुन्दर और सुहावने मौसम में दशहरा के सामाजिक तथा धार्मिक पर्व का आगमन होता है ।
यह पर्व सारे देश में किसी न किसी रूप में मनाया जाता है । बंगाल और उड़ीसा में सार्वजनीन दुर्गापूजा का महोत्सव बड़ी धूम-धाम से मनाते हैं । माता दुर्गा देवी की मृण्मयी मूर्त्तियां सप्तमी की रात से स्थापित कर दशमी तक पूजा की जाती है । घरों में भी पोथी पूजा, औजार पूजा, मंगला देवी की पूजाएँ होती हैं । इसे त्रिरात्र पूजा भी कहते हैं । सभी देवी मंदिरों में महाष्टमी, महानवमी की पूजाएँ होती हैं । दशहरे के दिन या उसके दूसरे दिन झांकियों का जुलूस निकलता है और नदी में विसर्जन कर दिया जाता है ।
दुर्गा शक्ति की प्रतीक है । संसार के पाप ताप, दुःख-क्लेश के विनाश हेतु माँ दुर्गा की उपासना आदि काल से होती आ रही है । दुर्गा सर्वशक्ति स्वरूपिणी देवी है । कहा जाता है कि भगवान श्रीरामचद्र ने शक्ति की पूजा कर महाप्रतापी रावण का वध इसी दिन किया था । अतः इसे विजया दशमी कहा जाता है । उसकी स्मृति में रामायण के विभिन्न विषयों पर झांकियाँ तैयार कर इसी दिन जुलूम निकाला जाता है और रावण की झांकी जलाई जाती है । और भी, भगवान शिव शंकर जी का अनुग्रह पाकर महिषासुर ने तीन लोकों पर भारी अत्याचार मचाया । उससे देवतागण भी त्रस्त थे । उसके संहार के लिए माता दुर्गा को चण्डी रूप धारण करना पड़ा । महिष पर विराज मान, हाथ में बरछी लिए महाशक्ति माता रणचण्डी स्वरूप लेती हैं और दुष्टों, पापियों तथा आसुरी शक्तियों का संहार करती हैं । विश्व कल्याण की कामना से माँ दुर्गा की पूजा- उपासना इस पर्व का उद्देश्य है ।
उत्तर भारत में इस समय श्रीराम जी की विजय की स्मृति में रामलीला का नाटक खेला जाता है । दक्षिण भारत में यह पर्व सरस्वती पूजा के रूप में मनाया जाता है और दशहरे के दिन बच्चों का विद्यारंभ होता है ।
यह पर्व अधर्म पर धर्म की, पाप पर पुण्य की, अन्याय पर न्याय की, मिथ्या पर सत्य की विजय का प्रतीक है । भक्ति भावना, राष्ट्रीय एकता, सामाजिक सद्भावना का यह एक महान् पर्व है ।

दीपावली


दीपावली हिन्दु समाज का प्रमुख पर्व है । हेमंत की गुलाबी ऋतु में कार्तिक अमावस के दिन यह त्योहार मनाया जाता है । यह मुख्यतः दीप पर्व है । अंधकार पर प्रकाश की विजय इस पर्व का सांस्कृतिक अभिप्राय है ।


दीपावली या दीवाली देशभर में और विभिन्न संप्रदायों में हर्ष और उल्लास के साथ मनाई जाती है, इसकी अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक मान्यताएँ हैं।
पौराणिक वर्णन के अनुसार मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीरामचद्र लंका विजय कर इसी दिन अयोध्या लौटे थे । उनके स्वागत में साकेत भवन में दीपमालाएँ सजाई गई थीं । अमावस की अंधेरी रात को दीप शीखा से प्रकाशित करने की एक परंपरा बनगई । इसी दिन माता काली का पूजन भी होता है । पुनश्च, उल्लेख मिलता है कि द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने दुष्ट बकासुर का वध किया था । नारक नामके असुर का भी इस दिन संहार हुआ था । कहा जाता है कि महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ अनुष्ठान इसी दिन किया था ।
दीपावली जैनियों का भी महान् धार्मिक पर्व है । जैन धर्म के 24 वें तीर्थंकर महावीर स्वामी का “पावा” में इसी दिन महाप्रयाण हुआ था । वहाँ काशी, कोशल, कोशाम्बी, लिच्छवी आदि जनपदों के राजाओं ने धर्मस्तुप का निर्माण करवाया और इस ज्योति पर्व को मनाया जो आज तक प्रचलित है । बौद्ध लोग भी इसे ज्योति पर्व के रूप में मनाते हैं और द्विप जलाते हैं । उड़ीसा में इस दिन पितर लोगों को याद करके श्राद्ध करते हैं । घी के दीपक जलाकर उन्हें बुलाते हैं । यह पर्व सिक्ख धर्म के आदि गुरु नामक जी, स्वामी रामतीर्थ और स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के महानिर्वाण दिवस की स्मृति से भी जुड़ा है ।
साँझ ढ़लते ही यह पर्व शुरू हो जाता है । घर, आँगन, दरवाजे, दूकान, बैठकी, छत, मुण्डेर, गुम्बद, बरामदे चारों और दीपमालाएँ सजाई जाती हैं । आजकल बिजली के बल्ब की मालाएँ, रंग-बिरंगी रोशनी की कलाएँ दीखाती हैं । मोमबत्ती की कतारें भी लगाई जाती हैं । पटाखे, फुलझरी, आतसबाजी चलाने का दौर रात भर चलता है । चारों ओर प्रकाश पुंज, दीपों की सजावट, बिजली के अनोखे खेल से धरती जगमगाती है । लोग रात भर उनींदी बिता देते हैं । यह लक्ष्मी पूजन का दिन है । कहा जाता है कि रात को माता लक्ष्मी घूमती हैं । घर-घर में तरह तरह की मिठाइयाँ और खीर-पकवान भी बनते हैं। व्यापारी समाज इसे नए वर्ष के रूप में मनाता है और मित्रों को मिठाइयाँ बाँटता है ।
और भी, दीपपर्व के कारण नाना प्रकार के अहित कारी कीड़े-मकोड़े नष्ट हो जाते हैं और परिवेश शुद्ध हो जाता है । दीपावली सामाजिक और पारिवारिक जीवन में खुशी ही खुशी लाती है ।

सरस्वती पूजा

विद्या और बुद्धि की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती है । सरस्वती का अर्थ है गति देने वाली । माँ शारदा के अनेक नाम हैं । जैसे भारती, वाग्देवी, वागीश्वरी, ब्राह्मी, वीणापाणि, महाश्वेता,भाषा, जगत्व्यापिनी, आशा, श्री, ईश्वरी आदि । उसकी कृपा से मानव कवि, कोविद, पण्डित, साहित्यकार, ज्ञानी बनता है ।


उसका स्वरूप कई ग्रन्थों में मिलता है । वह श्वेत कमल पर आसीन है । उसका शरीर ब्रह्मतेज के समान उज्ज्वल है अर्थात् गौर वर्ण है । तुषार यानी साफ सफेद माला है । सफेद दिव्य वस्त्र परिधान करने वाली उसके चार हस्त हैं । एक में वेद, दूसरे में मणिमाला, तीसरे चौथे हाथ में वीणा है । मुखमंडल शांत और सौम्य है । मुख से संगीत की ध्वनि ध्वनित होती है जो संगीत रचना की प्रेरणा है । वाहन राजहंस है ।
प्रति वर्ष माघ शुक्लपंचमी के दिन विद्या देवी माँ सरस्वती का पूजन सारे देश में किया जाता है । उस दिन को श्रीवसंत पंचमी भी कहा जाता है । यह वसन्त ऋतु का एक त्योहार है । विद्यालयों और महाविद्यालयों में तो पूजा हेती ही है, बल्कि व्यक्तिगत ढंग से घरों में भी होती है । कहीं मिट्टी की प्रतिमा का पूजन होता है तो कहीं चित्र प्रतिमा का पूजन के बाद झांकी का जल में विसर्जन किया जाता है ।
सरस्वती पूजा एक शांति का पर्व है । उस दिन शांतिभंग बिलकुल नहीं होना चाहिए । साहित्य आलोचना, नाटक अभिनय, भाषण प्रतियोगिता, संगीत समारोह आदि का आयोजन होना चाहिए । प्रसाद वितरण पूजा का एक अंग है ।
वास्तव में केवल फूल चढ़ाने, नारियल तोड़ने या बाढ़िया खीर, पूड़ी, मिठाइयों का भोग समर्पण करने से माँ सरस्वती अनुग्रह नहीं करतीं, वह तब मनुष्य की जड़ता और मूर्खता दूर करती है जब मनुष्य एकाग्रचित्त से अध्ययन करता है, साधक की तरह सच्चाई और लगन से परिश्रम करता है । विद्या और ज्ञान प्राप्ति के लिए अथक चेष्टा करनी चाहिए ।
इन दिनों सरस्वती पूजा के नाम पर माइक लगाकर भद्दे टेप लगाए जाते हैं । लड़के हुडदंग मचाते हैं । सिनेमा के अश्लील गीत गाए जाते हैं । इससे सरस्वती पूजा का सारा-का-सारा पवित्र वातावरण कलुषित हो जाता है ।
भक्ति श्रद्धा और विनम्रता की चीज है । फूल, अक्षत, सिन्दूर, अगरबत्ती के द्वारा भक्ति भावना पैदा नहीं होती । भक्ति हृदय में होती है । विद्या दायिनी माँ सरस्वती की असली पूजा हृदय की श्रद्धा भावना से होना चाहिए ।
इस पूजा के द्वारा हमारी महान् सांस्कृतिक परंपरा का पालन होता है और हमें एकात्मता की भावना मिलती है ।

होली


वसंत के आगमन की सूचना पतझड़ देती है । वैसे ही जीवन को सरस और सुन्दर बनाने की प्रेरणा “होली” अपने साथ लेकर आती है । यह मधुमय बसंत ऋतु का श्रेष्ठ पर्व है जो एक दिन का नहीं लगभग एक सप्ताह का त्योहार है । जब आम की डालियों में मंजरी लद कर चारों ओर के वातावरण को मीठी गंध से नहलाती हैं, पीले-पीले पत्ते झरने लगते हैं, पलाश और सेमर के लाल-लाल फूल खिलकर लाली फैलाते हैं, वसंत की शीतल बयार चलती है और शरीर और मन को प्रफुल्लित कर देती है, मन मस्त हो जाता है, तब वह पर्व आता है-फाल्गुन पूर्णिमा के समय ।


इस पर्व से पौराणिक कथा जुड़ी हुई है । हिरण्य कशिपु नाम का एक नास्तिक तथा दुष्ट राजा था । वह भक्त और सज्जनों को कष्ट पहुँचाता था । उसका पुत्र प्रहल्लाद ईश्वर भक्त था । उसे मारने के लिए उसने अनेक उपाय किए । अंत में उसकी बहन “होलिका” की गोद में उसे लिटाकर आग लगाई गई । परिणाम यही हुआ कि प्रहल्लाद बच निकले और होलिका जल कर भस्म हो गई । उसी दिन से “ होलिका” दहन की परंपरा प्रचलित है ।
पूर्णिमा के दिन लकड़ी, कण्डे, उपले इकट्ठे करके ‘होलिका’ सजाते हैं । बच्चे “होली है…… होली है” कहकर गली-गली में घूम कर सामान इकट्ठे करते हैं और रात को जला देते हैं । गीत भी गाए जाते हैं । दूसरे दिन होलिकोत्सव मनाया जाता है । इस उत्सव में सभी अबीर गुलाल, पिचकारी लेकर झांझ, मजीरे, ढोलक लेकर राजमार्ग पर आ जाते हैं और रंगों से मित्रों का स्वागत करते हैं । इसमें अमीर-गरीब, दुखिया-सुखिया, ऊँच-नीच सभी का भेद हट जाता है । मनुष्य केवल मनुष्य ही रह जाता है ।
होली का एक नाम मदनोत्सव भी है । शंकर भगवान ने कामदेव का दहन किया था । यह पर्व उसका प्रतीक है । भगवान कृष्ण ने दुष्टों का दलन कर गोपियों के साथ रास रचाया था ।
उड़ीसा में यह “दोल उत्सव” के नाम से जाना जाता है । मदन मोहन जी विमान पर चढ़ कर घर-घर परिक्रमा करते हैं और भोग खाते हैं । दोल पाँच दिन तक चलता है जिसे ‘पंचदोल’ कहते हैं । रात में नाटक (अभिनय) भी खेला जाता है । झूले को दोल कहा जाता है । विशेष प्रकार के गीत गाए जाते हैं । डफ, झांझ, मजीरे बजते हैं ।
यह खुशी का त्योहार है । नए कपड़े रंग, अबीर, गुलाल, इत्र आदि से प्रसन्न होना है । खाने-खिलाने के लिए अच्छी-अच्छी चीजें बनती हैं । लोग मित्र, पड़ोसियों के घर आते जाते हैं । आपसी मनमुटाव दूर हो जाती है । सब एक दूसरे के गले मिलते हैं । राजा और रंक भी गले मिलते हैं ।
पर आजकाल विषैले, रासायनिक तथा गन्दी चीजों का लोग उपयोग करते हैं जिससे खुशी के बदले दुःख होता है । हमें समझदारी से काम लेना चाहिए ।

रथ-यात्रा


पतित तथा पीड़ित जनों को अपने दर्शन देकर मोक्ष प्रदान करने वाले श्री जगन्नाथ जी रथ पर आरूढ़ होकर जो यात्रा करते हैं उसे रथ-यात्रा कहा जाता है। प्रतिवर्ष महाप्रभू आषाढ़ शुक्ला द्वितीया के दिन श्रीमंदिर से अपनी मौसी श्री गुण्डिचा के पास जाते हैं । इसलिए इसे “श्रीगुण्डिचा यात्रा” भी कहा जाता है। उनके साथ बड़े भाई बलभद्र स्वामी और बहन सुभद्रा भी यात्रा करते हैं।


अज्ञात काल से रथयात्रा महोत्सव मनाया जा रहा है । इसके लिए प्रतिवर्ष नए रथों का निर्माण होता है । जगन्नाथ के रथ का नाम नन्दीघोष, बलभद्र जी के रथ का नाम तालध्वज और सुभद्रा जी के रथ का नाम दर्पदलन है ।
तीनों की मूर्त्तियों को उनके सेवक पहण्डी करके श्रीमंदिर से लाते हैं और रथ पर चढ़ाते हैं । उनके साथ सुदर्शन चक्र भी आता है । पुरी के महाराज उनके श्रेष्ठ सेवक हैं जो उसी दिन सोने की झाडू लेकर रथ पर झाडू लगाते हैं । श्रद्धालु जनता रथ खींचकर श्री गुण्डिचा मंदिर तक ले जाती हैं जहाँ महाप्रभु शुक्ल नवमी तक रहते हैं और दशमी के दिन फिर रथ से श्रीमंदिर में वापस आते हैं । इस प्रकार यह लगभग दस दिन का त्योहार है ।
रथ यात्रा उड़ीसा के श्री जगन्नाथ जी का प्रधान पर्व ही नहीं समूची उड़िया जाति का पर्व है । घर-घर में रथ यात्रा के समय आनंद की लहर फैल जाती है । लोग नए कपड़े पहनते हैं । खीर, खिचड़ी आदि पकवान बनते हैं । रथ यात्रा देखने के लिए सभी निकल पड़ते हैं । उड़िया जाति और श्रीजगन्नाथ में अनन्य संबन्ध है । उड़िया संस्कृति ही जगन्नाथ संस्कृति है । प्रभु जगन्नाथ जी के मंदिर में सभी बराबर हैं । ब्राह्मण से चाण्डाल तक । कोई अस्पृश्य नहीं । उन के प्रसाद का नाम कैवल्य है यानी मोक्षदाता ।
वर्तमान श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा सारे विश्व में मनाई जा रही है । उड़ीसा के प्रायः सभी छोटे-बड़े गाँवों में तथा देश के विभिन्न राज्यों, बड़े-बड़े शहरों में यथा अहमदाबाद, कलकत्ता, अमृतसर, पंडरपूर आदि यह पर्व मनाया तो जाता है। इंग्लैण्ड और अमेरिका के विभिन्न शहरों में भी बड़ी धूम-धाम से रथयात्रा मनाई जाती है ।
जगन्नाथ जी सभी धर्म, मतवाद, विचार के प्रतीक हैं । उनमें हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि सबका समन्वय हुआ है । सामाजिक तथा राष्ट्रीय एकता की भावना को इस त्योहार से बढ़ावा मिलता है । यह पर्व न केवल भक्ति भावना को जागृत करता है, बल्कि विश्व मैत्री और विश्व भ्रातृत्व के लिए जन-जन को प्रेरित करता है ।

श्री गणेश पूजा


यह कौन नहीं जानता है कि गणेश जी विद्या के अधिपति हैं । उनके कई नाम हैं । वे स्वयं गण या सबके नेता होने के कारण विनायक, विघ्नों को नाश करने से विघ्नेश या विघ्ननाथ, मस्तक हाथी का होने का कारण गजानन कहलाते हैं । वे माता पार्वती और भगवान श्री शंकर जी के प्रिय पुत्र हैं । उनका वाहन मूषिक है ।
पुराणों में गणनाथ श्री गणेश (जननायक) जी के बारे में बहुत कुछ उल्लेख मिलता है । वे प्रखर मेधावाले, अनुपम स्मृतिशक्ति संपन्न देव हैं । संसार की सारी विद्या और कलाओं में निपुण, देव लोक में परम पूज्य सकल ज्ञान के स्त्रोत हैं ।


उनकी मूर्त्ति की कल्पना की गई है । छोटा-सा कद । पर मोटे-तगड़े, तोंद बड़ा, मस्तक हाथी का, दो लंबे लंबे दांत भी । मद जल के लोभ में भौरे माला के रूप में गर्दन पर बैठे हैं । ललाट में सिन्दूर की रेखा । हाथ में लेखनी और तिल के लड्डू जो उन्हें अत्यंत प्रिय है । वे सबके प्रिय हैं ।
श्री विनायक पूजा हमारा अन्यतम सांस्कृतिक त्योहार है । भाद्रव शुक्ल चतुर्थी के दिन यह पूजा की जाती है । श्री गणेश जी की मृण्मयी प्रतिमा अथवा चित्र प्रतिमा थाप कर पूजा कर अनुष्ठान किया जाता है । इस अवसर पर मित्रोoं को भी निमंत्रण दिया जाता है । विद्यालय और महाविद्यालयों में तो अनिवार्य रूप से हर संस्था में पूजा होती है, इसके अलावा यह एक सार्वजनीन पूजा भी है । मुहल्लों, गलियों, शहर के मुख्य चौराहों, केद्रस्थलों तथा घरों में विनायक पूजन होता है । महाराष्ट्र, गुजरात आदि राज्यों में बड़े आड़बर से लाखों रुपए खर्च करके श्री विनायक की सार्वजनीन पूजा की जाती है । मुम्बई में इस समारोह की तैयारी और जनता के आग्रह तथा श्रद्धा देख आश्चर्य होता है । कहीं सप्ताह के बाद तो कहीं दस दिन के बाद झांकी विसर्जन के लिए जोरदार जुलूम निकलता है जो देखने लायक है । श्री विनायक चतुर्थी का उत्सव राष्ट्रीय रूप ले चुका है ।
विद्या और बुद्धि के प्रदाता पार्वती नंदन की पूजा हमारी ज्ञान पिपासा की परिचायक है । आपसी सद्भावना और मैत्री का द्योतक है । क्योंकि उसके माध्यम से हमें मिलने जुलने, एक होने और उत्तम चिंतन के लिए मौका मिलता है । विघ्न विनाशक श्री गणेश हमारे अज्ञान अंधकार को दूर करें, जड़ता को विनाश करें और मूर्खता का खण्डन करें, यही कामना करते हुए उनका पूजन होना चाहिए । उनकी पूजा में अनावश्यक आड़ंबर से बचना चाहिए । ऑडिया में निबंध पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

ईद


हिन्दुओं की होली के समान मुसलमानों की ईद खुशी का पर्व है । इसे “ईद-उल-फित्र” भी कहते हैं जिसका अर्थ है- स्थिति का परिवर्तन । मुसलमान लोग आरवीय चांद्रमास मानते हैं । उनके बारह महीनों से एक माह का नाम “रमजान” है जो पवित्र माना जाता है । धर्मात्मा मुसलमान लोग इस माह में रोजा या उपवास करते हैं । दिनभर कुछ नहीं लेते । 30 रोज के बाद रोजा खतम होता है । उसके दूसरे दिन सभी “ईद” का त्योहार मनाते हैं ।


प्रत्येक मुसलमान चार धर्म-नियमों का पालन करता है-नमाज (प्रार्थना) रोजा (दिनभर उपवास), जकात (आय का चालीसवाँ हिस्सा का दान) और हज (हजरत मुहम्मद की जन्म भूमि मक्का-मदीना की तीर्थ यात्रा) । हज करने वाला हजी कहलाता है और उसे खूब सम्मान मिलता है ।
ईद के दिन सामूहिक प्रार्थना का रिवाज है । मैदान या ईदगाह पर सभी उपस्थित होते हैं । मसजिद में नमाज अदा की जाती है । सभी आयुवर्ग के लोग नए सफेद कुर्त्ता-पतलून टोपी पहन कर ईदगाह में इकट्ठे होते हैं । सबके मन में खूब उत्साह रहता है । चार चरणों में नमाज अदा की जाती है । उसके बाद इमाम खुतवा या उपदेश सुनाते हैं । मुसलमानों को दान का महत्व बताते हैं ।
ईद के दिन, घरों में तरह-तरह के पकवान, तरकारियाँ, पूड़ी-कचोड़ियाँ बनते हैं । सेवई अवश्य बनता है । मित्रों को भी निमंत्रण दिया जाता है । सभी एक दूसरे के गले मिलते हैं और आपसी भेद-भाव को त्याग कर आत्मीयता का व्यवहार करते हैं । ‘ईद’ के दिन बड़े बड़े शहरों में मेले भी लगते हैं । ईद की भेंट महत्वपूर्ण मानी जाती है ।
सब मित्रों, पड़ोसियों तथा अतिथियों और परिचितों को दावत भी दी जाती है । “ईद मुबारक” “ ईद मुबारक” कहकर अभिनन्दन भी करते हैं । मेहमानों का मुँह मीठा करते हैं । मिठाई और सेवई खिलाकर इत्र छिड़काया जाता है । यह दिन मौज मस्ती, खाने-पीने, घूमने-फिरने तथा मेल-मिलाप का ही होता है ।
ईद एक सामाजिक त्योहार है । इससे आपस में मैत्री बढ़ती है । परस्पर में सौहार्द बढ़ता है । धर्म भावना सारी मानवता को भाई-चारे के रूप में अपना लेने की शिक्षा देने के साथ जीवन को सरस तथा सुन्दर बनाने की प्रेरणा देती है ।

क्रिसमास्


इसाई समाज का महान पावन पर्व क्रिसमास है जो 25 दिसंबर के दिन मनाया जाता है । दो हजार वर्ष बूर्व प्रभु ईसा मसीह इसी दिन धरती पर अवतरित हुए थे । पीड़ित और अत्याचारित यहूदी जनता ने एक आदर्श त्राणकर्ता के लिए लंबे अरसे से प्रार्थना कर रहे थे । ईश्वर ने उनकी प्रार्थना सुनी और अपने प्रिय पुत्र यीशु को धरती में भेजा ।
रोम के बादशाह ने युसुफ को निर्वासित किया । वे अपनी पत्नी के साथ बेथलहम चले गए । लेकिन वहाँ की सभी अतिथिशालाएँ भरी पड़ी थीं । उन्हें ठहरने के लिए स्थान नहीं मिला । एक पहाड़ी गुफा में ठहरना पड़ा । मरियम ने वहीं ईश्वर पुत्र ईसा को जन्म दिया । स्वर्गराज्य से एक देवदूत आए और उन्होंने गड़रियों को यही सुसमाचार दिया । गड़रियों ने सर्व प्रथम मानव रूप में ईश्वर के दर्शन किए ।


ईसा का जन्म मानव जाति की मुक्ति के लिए हुआ था । उन्होंने संदेश दिया कि कोई भी सत्ता या संपति के बलपर महान नहीं बन सकता । कई अमीर लोगों ने अपनी संपदा त्यागकर प्राण कर्ता यीशु का अनुगमन किया । एक प्रख्यात ईसाई संत फ्रांसिस् ने अपना सबकुछ त्याग दिया । उन्होंने ही “क्रीसमस महोत्सव” सर्वप्रथम मनाया जो आज सारे विश्व में फैल गया है ।
प्रभु-पुत्र ईसा का जीवन त्याग और तपस्या का था । उन्होंने सबको प्रेम करने का उपदेश दिया । उन्होंने कहा “स्वर्ग का राज्य दीन दुःखियों का है । विनम्र व्यक्ति पूज्य है । शुद्ध हृदय वाले ही ईश्वर को पा सकते हैं । न्याय के निमित्त कष्ट सहनेवाले ही स्वर्ण निधि प्राप्त करते हैं ।” उन्होंने यह भी कहा है- “पाप से घृणा करो न कि पापी से । दान मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है ।” सलीव पर उनकों टांग कर कीले ठोंकते समय कहा- प्रभु, इन्हें क्षमा करें, क्योंकि ये नहीं जानते हैं, वे क्या कर रहे हैं ।
इस त्योहार में शिशु ईसा, मरियम, युसुफ, गड़ेरियों और भेड़ों की झांकियाँ रखी जाती हैं । आज बड़े बड़े शहरों में बड़ी धूम-धाम से यह पर्व मनाया जाता है । जबकि ईसा मसीह ने आड़ंबर विहीन जीवन जीने का उपदेश दिया था ।
वास्तव में क्रिसमस् का दिन घर आँगन रोशन करने, मजा लूटने, रंग-बिरंगे शुभकामना के कार्ड बाँटने के बजाये प्रभु ईसा के अवतार के रहस्य का मनन-चिंतन करना चाहिए । इससे मनुष्य का आत्मिक विकास संभव होगा ।

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