मजेदार स्टोरी इन हिंदी : विवाह

मजेदार स्टोरी इन हिंदी – चमेली मुँह फूलने लगी। चमचमाते काले पत्थर के समान छ हाथ का मर्द उधर खड़े होकर हाथ हिला-हिला कर कुछ बकता जा रहा है। और ये बेशर्म औरतें उसकी बातों को पी जाने की तरह मुँह बाये एक टक ताक रही हैं। काम-धंधे में मन नहीं है। कोई पूछने वाला नहीं है। डोमिन के आगे डोम के डींग हाँकने की तरह यह दाढ़ीजार सिर्फ मर्दानगी झाड़ता रहेगा उन कलमुँही औरतों के सामने। काम बाबू साहब का है। तुम्हारा नहीं है या मेरा नहीं है। कलक्टर साहब के बड़े बाबू का काम है। उधर किसीका खयाल नहीं है। न किसी की परवाह है, न फिक्र।
इन्हें पूछता कौन है। कोई इनकी पाँच-पच्चीस में करता तो कितनी हेकड़ी नहीं दिखाते। छोटे लोगों की छोटी बातें वरना इतनी हिमाकत दिखाते ! मन-ही-मन धड़ल्ले से बक्ती चली गयी चमेली।
बड़ी देर से उस छोकरे को बुलाते-बुलाते थक चुकी हूँ। न खुद जा रहा है, न किसीको जाने दे रहा है। उधर बाबू साहब झल्ला उठेंगे।
रोशनी के सारे बड़े-बड़े हंडे यही हैं। उधर दूल्हा निकलेगा कैसे! गुलाल साहब जानेंगे तो काम तमाम हा जाएगा। अच्छा होता कि मेरे सिर पर कोई रख देता। समय रहते मैं उनके घर पहुँच जाती। शादी-ब्याह की बात है। देर हो जाये तो दूसरा कोई चार नहीं है।
मुहूरत तय है। सही समय पर दूल्हे को पहुँचना है। जल्दी निकलने की बात बाबूजी कह रहे थे। इन्हें क्या गाली-फजीहत अखरती है। कड़वी बातें सुनते-सुनते उनकी चमड़ी मोटी हो गयी है। इस तरह देर करते रहेंगे और जब बाबूजी आकर टेढ़ी-मेढ़ी बातें सुनाएँगे तब मुँड़ झकाकर कतार में खड़े हो जाएँगे और पैर के अँगूठे की नोक से जमीन को कुरेदते रहेंगे। चमेली का गुस्सा बढ़ने लगा। गुस्सा सिर्फ उस पढ़ना पर बढ़ा, ऐसा नहीं है। गुस्सा बढ़ा उन बेशर्म औरतों पर भी। जादू खूब जानती है। ये कलमुँही औरतें जिस देखती हैं, उसे भुक्खड़ों की तरह लील लेने की नजर से निहारते हुए पूरी तरह घेर लेती हैं। फिर लाज-शर्म, आबरु-इज्जत इनके पास आएगी कहाँ से ?

चमेली का गुस्सा – मजेदार स्टोरी इन हिंदी

भीतर ही भीतर खून खौलता रहा चमेली का। पदना पर र्झुझलते हुए वह बेकाबू हा उठी। मानो उमड़-घुमड़ कर आकाश में घिर आये काले बादल बेलगाम हो अब दनादन बरसना चाहते हों।
अब खुद को और नहीं सँभाल सकी चमेली। कमर में ऑचल को लपेट कर खड़ी थी वह। ऑचल को एक बार अच्छी तरह टेंट में खांस दिया। अपने मन के मर्द को किसी परायी औरत के निकट होते देख, वह औरत जिस तरह अपनी सुध मूल जाती है, पल भर के लिए उसके बुद्धि-विचार गायब हो जाते हैं, जिस तरह आफत में पड़े हुए शिशु का उद्धार करने के लिए माँ की ममता आसपास की परिस्थितियों को भूलते हुए जान न्योछावर करने के लिए तैयार हो जाती है, पल भर में चमेली उसी तरह आसपास की परिस्थितियों को भूलते हुए युद्ध के लिए ललकारने को तैयार हो गयी।
क्योंरी पारो, साबी; शुक्रो, तुम सब बाल-बच्चों को लेकर घर बसाये हुए हो। पराये मर्द पर क्यों आँख गड़ाते हो। पीठ से पेट चिपक रहा है। अब इतनी मोहब्बत कहाँ से टपक रही हैं रोज-ब-रोज। अपने उस मर्द से शौक मिटता नहीं है क्या ? पराये मर्द पर डोरे डाल रही हो।
सबसे ज्यादा बदमिजाज औरत वह बाँझ पदमी है। व्याह रचा कर पाँच साल हो गये। पेड़ में फल लग ही नहीं रहा है। क्योंरी, तू कोख बन्द करने की दवा खाती है या तेरा मर्द ताकत दिखा नहीं पा रहा है। क्यों मेरे मर्द को संग हीं-हीं हो रही है ?
अभिमान और गुस्से में झुलसते हुए खुद को और नहीं सँभाल सकी चमेली। यदि जरूरत पड़ी तो नोचते-खसोटते हुए इन औरतों को घायल कर डशलेगी। किन्तु पदना को उनके फँदे में फँसने नहीं देगी। पदना उसके सात जन्मों का साथी है। यह लोक और परलोक का देवता है। उसका चलता-फिरता भगवान है। उसके जीते जी उसके मर्द को कोई और अपना बना ले, तो हाड़-मांस का शरीर लिये वह इसे कैसे बरदाश्त कर सकती है ? भागते हुए उनके पास गयी। क्योंरी; यहाँ जवान मर्द के संग अड्डा जमाती रहो। उधर समय ढल रहा है। नजर क्यों जाएगी ? कहते-कहते पदना की कलाई पकड़ कर खींच ले आयी चमेली। ऐ पदना, उधर मुँह फैलाये खड़ा क्यों है, कौन अनब्याही तेरा मन मोह रही है ? सभी घर-गृहस्थी बसा चुकी हैं । उनसे कौन-सा रस टपक रहा है ? आ इधर। तू जा या न जा, मेरे सिर पर जल्दी उठा दे इस रोशनी के हंडे को। मैं अपना रास्ता तय करती हूँ। तू इधर रास-विलास में डूबा रह। बाबूजी के आने के बाद सारा रस सफाचट हो जाएगा। पदना को खींच कर अपने साथ लाते समय चमेली बोलती जा रही थी। पदना के मुँह से बोली निकल नहीं रही थी। चमेली के पीछे पीछे वह चला जा रहा था। पदनी, शुक्री और सारी औरतें चमेली के गुस्से का खूब मजा लेते हुए ठहाके लगानेलगीं। शुक्रो की जुबान बड़ी बेलगाम है। फौरन एक मुहावरा दाग दियाö “इसका देख, उसका देख फड़कती है मेरी दाहिनी आँख।” ठीक है, ठीक है, पता चलेगा। मैं हूँ, तू भी है। देखते हैं कितने दिनों तक उसे प्यार में डुबोते हुए टेंट में बाँध कर रखेगी। फिर चमेली की ओर निहारते हुए सभी हँसने लगे।
अब और नहीं सँभाल सकी चमेली। दहाड़ मारते हुए रोनी लगी। किसी बच्चे की तरह सिसकियाँ भरती रही। उसके होंठ काँपते रहे औरवह पदना केक चेहरे को निहारती रही। फिर सिर झुकाकर आँसू बरसाती रही। अबश्य पाँव के नाखून की कोर से रेत पर रेखा खींचते हुए चमेली को देख पदना के दिल में हूक-सी उठने लगी। क्योंरी चमेली ! सचमुच तू एक बच्ची है। बच्चों की तरह रो क्यों रही है। तू जैसा हो रही है, वे औरतें तेरे साथ वैसा ही बरताव कर रही हैं। अरी, सचमुच मैं तुझे क्या भूल सकता हूँ। अपने पदना पर क्या तुझे इतना भी भरोसा नहीं है। आँसू बह रहे गालों पर पदना ने चिकोटी काटी, तो चमेली के होठों पर मुस्कान फैल गयी। पदना के हाथ को कसकर पकड़ते हुए चमेली ने कहा कि पदना सच में तू तुझे भूल तो नहीं जाएगा। तेरे बिना अकेले मैं जी नहीं सकती। बताओ तो सही कि तेरे अलावा इस दुनिया में मेरा और कौन है। बूढ़ी माँ मौत की सेज पर पड़ी हुईहै। सिर्फ साँसे चल रही हैं। इस तरह चलते-चलते पता नहीं कब थम जाएगी। फिर मैं बिलकुल अकेली हो जाऊँगी। भरोसा देने वाला न कोई आगे है, न पीछे। चमेली की ठुड्डी को हाथ से तनिक ऊपर उठाते हुए पदना ने कहा, ‘छी पगली कहीं की’। इस तरह अनाप-शनाप क्या बोलती जा रही है। चमेली, तेरी माँ तो है। मेरा तो कोई नहीं है। किस-किसको कब-कब खोया, चाहने से भी याद नहीं कर पा रहा हूँ। कहते-कहते पदना तनिक गंभीर हो उठा था।
पदना का दुःख को चमेली सह नहीं पाती है। उसकी गंभीरता को sढख वह मन में भाँप गयी कि उसके दिल को ठेस लगी है। खुद को सहज बनाते हुए चमेली ने कहा, ए पदना, अब तू ऐसा मत सोच। कोई न हो मैं तो हूँ। मर थोड़े ही गयी हूँ। ला, दे-दे, मेरे सिर पर रोशनी का हंडा उठा दे। पदना ने उठाकर चमेली के सिर पर रख दिया।
चमेली के चेहरे को निहारता रहा पदना। चल हट, अब इस तरह मत देखा कर। जा, उन सब के सिर पर रोशनी के हंडे रख आ। लोग क्या कहेंगे, आँखों की कोर से चमेली ने इशारा किया, पदना चला गया।
बारात निकली, जैसे हर जगह निकलती है। आदमी के हिसाब से खर्चा। रोजगार, दहेज और इज्जत के अनुसार बारात की ठाट-बाट होती है। फिर शहर और देहात के हिसाब से भी फरक नजर आता है। सामने सजे-सँवरे युवकों का झुण्ड। उनके पीछे बाजेवाले। उनके पीछे बैंड पार्टी के साथ-साथ सजी हुई कार में दूल्हा, कुछ और लोग। रिक्शे पर एक डाइनामा लदा हुआ है। पैसों के लिए पसीने से तर-बतर हो रिक्शावाला खींच रहा है रिक्शे को। बारात के दोनों तरफ मैले-कुचैले कपड़े पहन कर कुछ आदमी और औरतें सिर पर रोशनी के हंडे लादे चल रहे हैं। उनके चेहरे रोशनी के नीचे की छाँह में नजर नहीं आ रहे हैं। इनका पेशा ही यही है। सारा जीवन खुद को अँधेरे में रखकर दूसरों को खुश करने में ही इन्हें आनन्द मिलताहै। इन लोगों ने अपने लम्बे जीवन-काल में ऐसी प्रकाश-मालाओं में कितने ही लड़के और लड़कियों का मिलन कराया है। उनके जीवन में प्रेम की रोशनी जलायी है। पर दिन-रात मेहनत करते हुए भी अपने जीवन को प्रकाशमय बनाने के सपने को साकार नहीं कर पाये हैं।
साधु-भाषा में जिसे समाज कहता है ऊपरी आमदनी, यह इनकी ऊपरी आमदनी है। लेकिन फर्क यह है कि जो नौकरी करते हैं, वे अपने कार्य-समय के दौरान ही इस कमाई को हासिल कर लेते हैं। पर ये लोग इतने होशियार नहीं है। इसलिए सारा दिन मजदूरी करने के बाद रात को इस तरह की शादी और बारातों में मेहनत करके कुछ पैसे कमा लेते हैं। मेहनत की इस कमाई को ये लोग ऊपरी आमदनी समझते हैं। जब की नौकरी करनेवाले बिना किसी मेहनत के सिर्फ होशियारी से ऊपरी आमदनी एQठ लेते हैं।
चमेली, पदना, शुक्री, पदनी सभी कंट्राक्टर शरत बाबू के पास काम करते हैं। दिन भर की मेहनत के बाद कभी-कमार इस तरह का मौका मिल जाए तो वे शादियों और त्योहारों में रोशनी के हंडों को ढोने का काम कर लेते हैं। चार-पाँच घण्टे मेहनत करने से कुछ कमाई हो जाती है। अच्छा खाना-पीना भी मिल जाता है। इस तरह के मौके साल में दस-बीस बार ही मिलते हैं। इससे उन्हें परम आनन्द मिलता है, आत्मतृप्ति मिलती है। अपना न होने से भी कम-से-कम दूसरों का देखकर वे खुश होते हैं। पल भर के लिए इनकी थकावट दूर हो जाती है।
चमेली चल रही थी दूल्हे की मोटर गाड़ी की ओर रोशनी दिखाते हुए। दुल्हे की उम्र पच्चीस के आसपास होगी। देखने में गोरा, पतला, ज्यादा लम्बा नहीं है। पर हड़ीला चेहरा है। माथे पर चन्दन की बिन्दी लगाये, फूल की मालाएँ पहने, सिर पर मुकुट र्बांधे किसी वीर की तरह बैठा हुआ है। कोई गोरी-सी लड़की उसका इंतजार कर रही होगी। वह भी मन जीतने लायक श्रृंगार करके बैंठी होगी। पर यह दूल्हा मुझे टकटकी लगाये क्यों देख रहा है ? सभी मर्द ऐसे ही होते हैं। सभी की आँखें एक जैसी हैं। अपनी औरत जितना भी सात-श्रृंगार करके रहे, पर ये मर्द दूसरी औरतों को तनिक तिरछी नजर से जरूर निहार लेंगे। पता नहीं उससे मिलता क्या है, मन-ही-मन सोचने लगी चमेली।
बारात आगे बढ़ती जा रही थी। चलते-चलते चमेली सपना देख रही थी। पदना भले ही देखने में साँवला है, पर इस दूल्हे से क्या काम कम है ? पदना के खमदार हाथ-पैर, चौड़ी-छाती, ऊँट के कूबड़ की तरह कंधे हैं, और देखने में पाँच हात का मर्द। यह कल का छोकरा उसके पासंग के बराबर भी नहीं होगा। गुदगुदाने वाले इस सोच से उसके शरीर के सारे लोम-कूप थर्रा उठे। पदना दूल्हे के वेश में पालकी में बैठ कर आयेगा। कहारों की हुँ-हुँ की आवाज सड़क पर गूँज रही होगी। पारू, शुक्री, साबी, पदनी आदि सहेलियाँ उसे घेर कर बैठी होंगी। बीच-बीच में उसे निहारते हुए इशारों में बातें करके उसकी चिकोटी काटती रहेंगी और वह अभिमान में आकर मुँह मोड़ती रहेगी। बात नहीं करेगी, मानो धीरे-धीरे शर्म के मारे गठरी बनती जा रही हो। गाजे, बाजे, बैंड, रोशनी, मोटर गाड़ी की बातें वह सोच नहीं सकी। पालकी और कहारों तक आकर उसकी सोच की लड़ी अटक गयी।
मगर उनकी शादी तो आपसी सहमति से होगी। पदना ने कहा है कि वह चमेली से प्यार करती है और शादी करेगी। चमेली ने भी हाँ कर दी है। ठीकेदार ने तम्बू हाल रखे हैं। एक तम्बू मर्दों के लिए और दूसरा औरतों के लिए। टेलीफोन भवन का काम चल रहा है। चार मंजिला इमारत बन रही है। और एक महीने में काम खत्म हो जाएगा। खूब तेजी से काम चल रहा है। मर्द और औरतें मिलकर काम कर रहे हैं। पदना उत्तर ओड़िशा के उदला शहर से आया है और चमेली पश्चिम ओड़िशा के कालाहांडी से। काम करतरे समय हँसी-ठिठोली चलती रहती है। चमेली पदना को निहारती और पदना चमेली को। एक दूसरे को निहारते । एक दूसरे को समझते। पर हिम्मत करके कोई बोल नहीं पाता। शादीशुदा औरतें दोनों को लेकर ठिठोली करतीं। पदना जब सीमेंट की बोरी चमेली के सिर पर रखता, तब सभी में गुदगुदी फैल जाती। आपस में फुसफुसाते हुए कनखियाँ से देखते। पदना चमेली के मासूम चेहरे पर और टीले की तरह उभरे हुए सीने पर निगाह डालते हुए काम करते समय बीच-बीच में ठहर जाते। चमेली शर्म के मारे सिमट जाती। सिर झुका कर वहाँ से निकल जाती। मन-ही-मन सोचती कि काम-धंधा छोड़कर पदना के भीमकाय सीने पर सिर रख कर आकाश की ओर निहारते हुए समय गुजार देती। ये सारी मुँह झाँसी औरते फौरन कोई न कोई मुहावरा दाय ही देतीं। बस, रहने दो। और आगे मत बढ़ो। कहावत हैö ‘दिल आया गदही पे, तो परी क्या चीज’।
छत की ढलाई के दिन बड़े बाबू रहते। उस दिन सारी रात काम चलता। काम खत्म होने के बाद छुट्टी हो जाती। बाबू की तरफ से खाना मिलता। मोटे चावल का भात, डालमा और कच्चे आम या टमाटर की चटनी बनी होती। उस दिन जैसे त्योहार हो। रात भर बत्तियाँ जलतीं। उसके अगले दिन काम से छुट्टी मिल जाती। चौथी मंजिल की छत की ढलाई हो रही थी। चमेली के सिर पर पानी भरा कनश्तर उठा कर रखता था पदना। चमेली जाकर पानी देकर लौटती, तब तक पदना एक और कनश्तर में पानी भर कर रख देता। दोनों एक दूसरे को सिर्फ व्याकुल होकर निहारते। रात के दो बजे के आसपास काम खत्म हुआ। मिस्त्राr ने आवाज दी कि और पानी नहीं चाहिए। बन्द करो। चमेली ने चैन की साँसली पदना तक खबर पहुँचानी है। अब काम का बोझ नहीं है। फिलहाल वे तनिक थकावट दूर करेंगे। चमेली भागती हुई लौटी। पदनाö अरे पदना, अब पानी क्यों भर रहा है। उधर से मिस्त्राr की आवाज आयी है कि काम खत्म हो चुका है। बिना हिले-डुले खड़ा हो गया पदना। पलक बिना झपकाए निहारता रहा चमेली को। दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े। ए पदना, तुझ पर किसीने जादू डाला है क्या ? मुझे कभी देखा नहीं था क्या ? इस तरहक्यों देख रहा है ? मुझे लील लेगा क्या ? कहते-कहते पदना के पास सरक गयी थी चमेली। उसके हाथ को पकड़कर हिलाते हुए कहाö तुझ पर भूत सवार हो गया है क्या पदना। पदना के रोंगटे खड़े हो गये। लम्बी-लम्बी साँसे भरते हुए उसने पलक झपकते ही हाथी केकान जैसे अपने चौड़े सीने से भींच लिया चमेली को। आलोक और अंधकार की उस फीकी छाया में चमेली एक सॉपिन् की तरह लिपट गयी पदना के शरीर से। उसकी पहाड़ जैसी छाती को पदना ने अपने निविड़ भुज-बंधन में भींच कर अपने शरीर में समा लिया।
पदना प्रकृतिस्थ हुआ। भुज-बंधन को शिथिल करके दोनों हाथों से चमेली के चेहरे को थाम लिया। फिर दाहिने हाथ की उँगलियों सेउसके घने लम्बे बालों को सहलाते हुए पूछा कि सच बता चमेली, क्यामुझसे शादी करेगी। चमेली रो पड़ी। पदना ने चमेली की आँकों से आँसू पोछ दिये। दोनों ने एक दूसरे को समझा। उस फीकी रोशनी में दो आत्माओं का मिलन हुआ युगों-युगों के लिए। उस दिन से वे एक दूसरे से प्यार करने लगे। भरपूर प्यार करने लगे। चमेली किसी दूसरे को देखती भी थी, तो पदना से ज्यादा किसी को अपना समझती नहीं थी। काम करते-करते बदन चूर-चूर होने से एक दूसरे के दुःख में शामिल होते थे। अपने बदन में दूसरे की पीड़ा को महसूस करते थे। पदना की आवाज से चमेली का सपना टूट गया। पदना हँसने लगा। तनिक हिलाते हुए पूछा-क्योंरी, हमारी ही बात सोच रही थी क्या ? इस तरह सारी रात क्या सिर पर बोझा लादे खड़े रहेगी। सभी अन्दर जा चुके हैं। रोशनी के हण्डे को उधर रख कर इधर आ जा। सभी इधर बैठे हुए हैं।
बरातियों ने खाना खाया। उनके खा चुकने के बारी आयी इन लोगों की। ये मजदूर हैं। मजदूरी करने के लिए आते हैं। मेहनत करते हैं और मजूरी लेते हैं। इसलिए इनको दावत खिलाना दाता की दया पर निर्भर करता है। बराती तो मुफ्त में आते हैं। वे सभ्य, कुलीन, शिक्षित् और रुचि सम्पन्न होते हैं। लेकिन ये बाजावाले, रोशनी का हंडा ढोनेवाले, रिक्सावाले सभी निचले स्तर के आदमी हैं। ये अशिक्षित और असभ्य हैं। इन्हें रुचि का बांध ही नहीं है। मेहनत इनकी आजीविका है। निरीह ढंग से कछुए की तरह सारा जीवन मेहनत करके पेट भरते हैं। कुलीन अदब कायदे से वे काफी दूर हैं। मैले-कुचैले कपड़े-लत्ते में ये कैसे इस भद्र समाज के साथ बैठकर खाना खा सकते हैं ? बाद में जो खाना बच जाता है उसे वे अपनी किस्मत समझ कर खा लेते हैं। उस बचे हुए खाने पर उनका एकाधिकार होता है। उसीसे उनकी आत्मा को तसल्ली मिलती है। क्योंकि उस तरह का भोजन उन्हें कभी-कभार मिलता है, हमेशा नहीं।
चमेली, पदना तथा दूसरों ने मन मुताबक भरपेट खाना खाया। जहाँ शादी हो रही थी, उस घर के पीछे एक बड़ी दरी बिछी हुई थी। गर्मियों के दिन थे। आधी रात को हवा हौले-हौले बह रही थी। सब वहीं आराम करने लगे। दिन भर के थके-माँदे थे। फिर रात को सिर पर बोझ रख कर रास्ता तय करते रहे। इसलिए बैठते ही सभी को नींद आ गयी। लेकिन दो जोड़ी आँखों को नींद नहीं आ रही थी। कुछ देर तक करवट बदलने के बाद पदना उठा। चमेली को हिलाते हुए उसके कान के पास फुसफुसाते हुए कहाö ए चमेली, सो रही है क्या। आ, थोड़ी देर के लिए उधर बैठते हैं। सब कुछ समझते हुए भी कुछ न समझने की तरह पदना के पीछे-पीछे चमेली चल पड़ी। पीछे के बगीचे में हल्की अँधियारी फैली हुई थी। धुँधले प्रकाश में कुछ अँधियारा सरक गया था। पदना ने कमर से अपना अंगोछा खोलकर जमीन पर बिछा दिया और बैठ गया उस अंगोछे पर। पास बैठ गयी चमेली। चमेली के सिर को पदना ने अपनी गोद में रख लिया। आसमान की ओर निहारती रही चमेली। शायद अनगिनत ताराओं को मन-ही-मन गिनने की कोशिश कर रही थी। चमेली के गालों पर जीवन की रेखाओं को खींचते हुए पदना उसके चेहरे को अपलक निहार रहा था। किसी के मुँह से बोली फूट नहीं रही थी। दो शरीर और दो आत्माएँ प्रकृति की गोद में एकाकार हो रहे थे।। सभ्यता के राजमार्ग में उनके विवाह की रोशनी नहीं जली, न शहनाई बजी। लेकिन पुरुष से प्रकृति अलग नहीं हो सकी। चमाचम रोशनी से काफी दूर, भोर के अँधेरे में दोनों एक दूसरे में लीन हो गये।
अदूर से शहनाई की धुन के साथ-साथ ताल मिलाते हुए पुरोहित की मंत्र-ध्वनि तैरते हुए आकर क्षितिज में घुलती जा रही थी।

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