हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं

हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं

समयान्तर में (हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं)

आगन्तुक समय
अपरिचित है हमारा।
जो कुछ परिचित था पलायित समय में
वह भी तो अपरिचित था
उस समय के आगमन से पहले।

समय आ गया
या आ चुका था जो;
कितना सारा स्नेह नहीं बाँटा हम ने
उसकी कमर पर हाथ रख कर
आँखों से आँखें मिला कर
उसके चिबुक को आहीस्ते सहलाते हुए
कितना अनुनय नहीं किया
छलछलाती आखों से।
समय कुछ-कुछ समझ सका
कुछ और नहीं समझ सका
हम इन्सानों की भाषा !

खुद को छिपाकर बादलों में
इन बादलों में से चुपचाप
चाँद देख क्या रहा है ?
वेदना क्लांत नदी की नीरवता
अराजक समय की धुँधली निगाह
टूटी हुई नाव का आतंक !

सातकोशिआ दह में नाव डूब गयी है
जो समा गये पानी में
उन्हें क्या कहा जाएगा
वर्तमान का अतीत ?

उसे क्या कहेंगे आप
गुमराह कोई निर्झरिणी
समुद्र की ओर जाते-जाते
यदि खो जाती है रेगिस्तान में ?
कहेंगे क्या कि यह है उसका
अमीष्ट कर्मफल !
दअष्ट और दृष्टि के अन्तराल में
जो कुछ रह गया
उसे ही तो कहेंगे हम
प्रकृति का गोपन रहस्य।

माँ धूमावती ! तारा, छिन्नमस्ता
माँ कमला, भुवनेश्वरी
देवी-तत्व के शब्द-चुम्बक से गठित
चुम्बकीय इस धातव देह को
मत उलझा माँ
किसी और मरणान्तर मकड़-जाल में;
बेकार के प्रारब्ध-प्रारब्ध शब्द के
वहणानुबन्धन के अजीव दाय में ।।

अरण्य का चाँद (हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं)

अतीत होता है हमेशा उज्ज्वल
भले ही बादलों से ढका हो।

कभी-कभी तुम
जिस तरह बड़बड़ाते हो, ना !
सोने का निरग, सोने की हिरनी,
सोने का मिरग….
यह नहीं है क्या
उस प्रतीकात्मक निर्वाण का
एक इकतरफा रास्ता
पसर गया है जो
एक समुद्र से एक और समुद्र तक
एक निर्णित आकाश से
एक और निर्णेय आकाश तक
जिसका कोई अन्त नहीं।।

रास्ता हो सकता है घूमते हुए
फिर आ जाए अपने स्थान पर
जिस बिन्दु से कदम शुरू होता है।
शायद न भी आये।

नदी क्या लौट सकती है
अपने पहले के रास्ते पर
क्या सहला सकती है
पार किये हुए धूसर
या श्यामल उपत्यका को ?
पृथ्वी में ढेर सारी आत्माएँ हैं !
मानव गाय-बैल, साँप, मेंढ़क
मिट्टी के नीचे के कीड़े मकोड़े भी
कुल मिलाकर कितनी आत्माएँ ?
और कितनी आत्माएँ पृथ्वी से जा चुकी हैं
समुद्र के उस पार के
उस अंतिम बन्दरगाह की ओर।

हम में से कोई कभी क्या कह सकता हैं
कि पृथ्वी की पहली आत्मा कौन है ?
क्या था उस आत्मा का रूप या स्वरूप !
क्या कोई कह सकता है
कि आत्मा लौटेगी शरीर में फिर एक बार।
वह आत्मा पेड़ की भी हो सकती है,
लकड़ी के कुन्दें की भी,
गाय-बूँद पानी की भी हो सकती है,
धूल की भी।

हम क्यों सोचें
कि नक्षत्र की नहीं है देह
पवन की क्षुधा नहीं
समुद्र की नहीं कोई पिपासा
सभी संगीत का
अपना-अपना एक कण्ठ नहीं
किसी उत्साह गायक सा ?

काल्पनिकता यानी क्या हो सकती है ?
मान लीजिए तुच्छाति तुच्छता,
रूपकल्प यानी
कुछ वास्तविकता की आधार भूमि
किन्तु सही नहीं है वस्तु की वास्तविकता
वस्तु के भीतर भी हो सकते हैं
किसी और आकर के
वृत्त या रेखा की ज्यामिति
ज्यों शून्य के भीतर भी हो सकती है
वस्तु-धन-परिमिति की
चित्रांकित अदृश्य-ज्यामिति।
जैसे स्थिर दीप-शिखा !
शिखा के भीतर भी होती नहीं है क्या
एक और दीप्त, तेजियान, अन्तर्लीन शिखा ?
क्या है यह सब आत्मा की प्रकृति
या प्रकृति के भिन्न-भिन्न
एक साथ सृष्टि और विलय की
निर्णीत सांकेतिकता
सूक्ष्म को आवृत्त करके रखती है
स्थूलता की विद्यमानता ?
नहीं पता !
कौन कह सकता हैं
कि हमारे पूर्व निर्णीत आयतन में,
आप सब हैं या मैं।
हम सब क्या नहीं है एक-एक
जीवित-मरे हुए व्यक्ति,
इस नियत
बदलते वाली आलोक-राश्म की
छाया-धन परछाई।
या स्थूल परिमिति के अन्दर
अनगिनत रेखांकित अदृश्य ज्यामिति।

अपने अन्दर खुद (हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं)

कुछ प्रश्न
प्रश्न बनकर रह जाते हैं।
युगों-युगों तक मिलता नहीं उत्तर।
आईने में होते है जितने रूप
जितनी मौनता
जितने विश्व-रूप !
उन्हें क्या पढ़ा जा सकता है,
जीवन-काल में ?
पढ़े तो भी
क्या दिया जा सकता है
सही उत्तर ?

आईने में छवि को देखते हुए
दिन और रात,
लहर समुद्र और आकाश
कितनी छायाएँ,
कितने सारे घने अरण्य
सब में क्या देखा जा सकता है
अपना आत्मरूप ।
उन सब की कुछ बातें
बात बनकर रह जाती हैं;
चिर निबिड़ अन्धकार में
जिनके लिए कभी भी
आती नहीं है सुबह ।

माँ (हिंदी पुराने कवियों की प्रसिद्ध कविताएं)

।।1।।

काफी दिन बीत चुके हैं।
वैशाख गया, सारा फगुण गया,
वर्षा झरने लगी
हमारे गाँव की नदी महषिकुल्या में
बाढ़ आयी, गयी
ऋतुएँ बदलती रहीं
पर, काफी दिन हो गये
देख नहीं पाया तुम्हें।
न जाने कैसे ?
सिर्फ महसूसा है तुम्हारी
बिना आवाज की, बिना बोल की
उस अवाक् नीरवता की
अखण्डित व्याकुलता को।

बड़ी कठिनाई से
ऊपर की ओर हाथ उठाकर
किस अँधेरे को टटोल रही हो माँ ?
तुम तो होö
उस आलोकित विमान की यात्री।
हॉं माँ-मत भूलो
कि तुम हो उस आलोक पथ की यात्री।
जिस पथ पर गये हैंö “बाबूजी”
जगत के महान-महान ऋषि, योगीö
तुम हो माँ उसी पथ की यात्री !

याद है माँ
बहुत छुटपन में
भात का कटोरा हाथ में लिये
घूमती-फिरती थी आँगन में
हमारे रहनेवाले उस जमाने के
‘राधाकृष्ण मठ’ के एक किराये के मकान के
ओwर कहती थीं कि खा ले जल्दी-जल्दी
यह दख ‘बलकृष्ण महाप्रभु’ आ रहे हैं
आकाश से तेरे साथ खेलने,
‘राधाकृष्ण मठ’ के आँगन में।
भर पेट खाकर सो जाता था,
तुम्हारे पलंक पर
जान नहीं पाता था
कि “कृष्ण महाप्रभु” आते थे या नहीं
खेलने के लिए मेरे साथ
कम-से-कम सपने में।’

।।2।।

अब मेरे माँ
मुझ से है बहुत दूर
दूसरे एक शहर में
अन्य सभी भाई-बहन
परिवार, नातेदारों के साथ।
फिर भी न जाने क्यों
एक गुमसुम ‘सन्नाटा’ ढाँप लेता है उन्हें
‘बाबूजी’ के गुजर जाने के बाद।
पता हैö होठों को खोल कर
भले ही वे कुछ न कहें
पर कुछ बातें तो कह लेती हैं
त्याथा की नैया पर लेटे-लेटे
आँसू-भरी आँखों ही आखाँ से।
अभय और आशीष की दीप्त निगाहों से।

देखा है माँ
कई बार तुम्हारी स्निग्ध,
मलिन आँखों की कोर में
चंदन की एक छोटी बिंदी-सी
तारा भर रोशनी
जो रोशनी धो डालती है
मेरी इस काली-कलूटी देह को
सहला देती है,
‘रक्षा कवच’ के सहस्र-सहस्र
मंत्रों से अभिमंत्रित
उन आँखों की भोर की धूप से
उन आँखों के समुद्र जैसे मातृत्व की
वात्सल्य-लहरों से।

उसी युगंधित फल की
उन पंखड़ियों की नरम-नरम
उत्ताल लहरों को माँ आज मैं
पोछ नहीं पा रहा हूँ अपने हाथों से।
वेदना के हर सुर में कभी बादल,
कभी वर्षा में भींगते हुए
भिन्नक्षम आज इस जीवन की नैया ‘मा’।
अब बिलकुल छू नहीं पा रहा है
अपनी माँ की अन्तहीन ममता का समुद्र-किनारा।

कई बार चाहा है कि जाऊँगा-जाऊँगा
देखने के लिए एक बार आँख भर कर
जैसे निहारता रहता है
धान का खेत स्वार का
आकाश के तैरते बादल को।

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