आधी रात । चारों ओर सन्नाटा। बिजली के खम्भों पर कहीं-कहीं रोशनी दिखाई पड़ रही है। किसी तरफ बिना देखे एक महिला चौकस होकर खूब तेजी से बढ़ती जा रही हैं। ठण्ड के दिनों में जब शीत-लहर चलती है या गर्मियों में लू चलती है, तब लड़कियाँ और औरतें चुनरी या साढ़ी के पल्लू से चेहरे को छोड़कर तमाम सिर ढक लेती हैं।
उसी तरह उस महिला ने खुद को ढाँप रखा था एड़ी से लेकर चोटी तक। सिर्फ चेहरा खुला हुआ था। वैशाख माह का अंतिम सप्ताह। लू चल रही थी। रात में उमस काफी बढ़ गयी थी। निकट से भी पहचानना कठिन हो गया था कि वह औरत कौन है ? इस आधी रात में वह स्टेशन की ओर क्यों जा रही है। इतनी रात गये कोई औरत पैदल अकेले चल कर किसी दूरागत ट्रेन से आनेवाले रिश्तेदारों के स्वागत के लिए पहुँचने की संभावना कम लगती है।
फिर क्या आत्महत्या करने की कोई& योजना है ? चलने की तेज गति से इस तरह के संदेह का होना स्वाभाविक था। किसी दूर जगह जानता नहीं है ? स्टेशन नजदीक होने लगा था। कोचिन-गुवाहाटी एक्सप्रेस का समय करीब आधी रात ही है। रात ज्यादा होने से पहले अपनी सुरक्षा की दृष्टि से यात्री अक्सर काफी पहले स्टेशन चले आते हैं। पैदल आनेवाली औरत ने स्टेशन में प्रवेश किया।
फ्लाइओवर को सीधा पार करते हुए दो नम्बर के प्लैटफार्म में जा पहुँची। काफी तेजी से आने के कारण वह थक गयी थी। इसलिए थोड़ी देर के लिए सीमेंट की बेंच पर बैठ गयी। वह काफी परेशान और बेचैन लग रही थी।
चारों तरफ निगाह तेजी से दौड़ा रही थी। जैसे कोई यात्री अपने किसी सहयात्री का इंतजार करते-करते खिन्न हो उठा हो। बस या ट्रेन के आने का समय जितना नजदीक आने लगता है, इंतजार करनेवाला यात्री उतना ही बेचैन हो उठता है।
कभी-कभी छिपकर भागने वाला व्यक्ति सोचता है कि उसे किसीने देख तो नहीं लिया है; उसे किसीने पहचान तो नहीं लिया हैं ? ऐसे किसी व्यक्ति के आ जाने की बात सोचकर वह घबरा उठता है। वह आरत कुछ इसी तरह घबरायी हुई थी।
प्लैटफार्म की तेज रोशनी में अब उनका चेहरा साफ दिखायी पड़ रहा था। गोरा चिट्टा रंग, गोल चेहरा, फैली हुई आखें, धनुष की तरह भौंहें पैरों में कम एड़ी के जूते, लम्बे-लम्बे हाथ, औसत ऊचाई। शरीर पर हल्की-सी चर्बी नजर आ रही थी। उम्र तीस के करीब। कुल मिला कर प्लैटफार्म की सीमेंट की बेंच पर बैठी हुई औरत एक खूब युवती थी।
गौहाटी की ओर जानेवाली कोचिन-गौहाटी एक्सप्रेस आकर प्लैटफार्म में लगी। यात्रियों में चहल-पहल शुरू हो गयी। धक्का-मुकी के बीच चढ़ना-उतरना चलता रहा। दस मिनट के बाद सीटी बजी और ट्रेन स्टेशन से रवाना हो गयी।
प्लैटफार्म फिर से खाली-खाली लगने लगा। सभी अपनी-अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले। सीमेंट की बें पर बैठी हुई वह खूबसूरत युवती वहाँ नहीं थी। कुछ समय पहले जो लोग युवती के चाल-चलन को कुतूहल के साथ देख रहे थे, उनके मन में उसके बारे में जानने की उत्सुकता होते हुए भी, उस युवती के अन्तर्द्धान हो जाने के कारण, उसे एक मामूली घटना समझ कर ध्यान नहीं दिया।
रात काफी हो जाने के कारण यह घटना कुछ समय के बाद एक बुरे सपने की तरह सब के मन से मिट गयी। सभी अपनी-अपनी जगह आराम करने के लिए लौट गये थे।
सुबह सात बजे अस्वाभाविक रूप से प्लैटफार्म पर लोगों की भीड़ जम गयी। पुलिस के कर्स अफसर उस भीड़ के बीच चक्कर लगा रहे थे। कुतूहल के कारण साधारण लोग उस घटना के बारे में जानने के लिए उस तरफ खिंचे चले जा रहे थे।
सब के चेहरे पर कुतूहल पसरा हुआ था। पुलिस जाँच-पड़ताल खत्म करके लौट गयी। छानबीन से उन्हें क्या मिला क्या नहीं मिला कुछ पता नहीं; पर वे क्यों आये थे और किसकी छानबीन कर रहे थे, उस पर लोग अलग-अलग गुटों में चर्चा कर रहे थे।
घटना कुछ ऐसी थी। शहर के एक मध्यवित प्रतिष्ठित परिवार की अट्ठाईस-उनतीस साल की लड़की दो दिन पहले बीमार होने के कारण हस्पताल में भर्ती हुई थी। उसे लगातार अलग-अलग किस्म की दवाइयाँ दी गयी; पर उसकी सेहत ठीक नहीं हुई। इसलिए कल भेषज विशेषज्ञ ने एलिसा टेस्ट के लिए उनके रक्त का नमूना भेजा था। आज शाम को डाक्टर ने उस युवती को एकान्त में बुलाकर कहा कि वह एडस की बीमारी से पीड़ित हैं।
हस्पताल में युवती की देख-रेख के लिए उनके नजदीक के एक रिश्तेदार थे। वे बीस साल से भी छोटे थे। इसलिए युवती ने डॉक्टर से अनुरोध किया कि वे इस बात की सूचना आज उस रिश्तेदार का न दें। बताकर, उनसे सलाह मशविरा करके, आगे कौन-सा कदम उठाया जाना चाहिए, तय करने का अनुरोध किया था। युवती का आचरण इतना सुन्दर और मन को छूने वाला था कि डॉक्टर उनके आग्रह को टाल न सके।
उस युवती से खेद के साथ संवेदना प्रकट करके वे लौट गये। लेकिन वह युवती बीती रात उनके रिश्तेदार तथा दूसरे मरीजों की गहरी नींद में सोने का फायदा उठाकर हस्पताल से वाहीं अन्तर्द्धान हो गयी। युवती एडस का शिकार थी और साधारण लोग उन्हें पहचानते नहीं थे।
इसलिए यदि कोई उनसे शारीरिक संपर्क रखे, तो दूसरे लोगों में एच.आई.वी. भुताणुओं के संक्रमित होने का भय था। इसलिए पुलिस उन्हें ढूँढ़ रही थी।
दोपहर ढ़ल चुकी थी और शाम होने को थी। अखबार बेचनेवाले चिल्ला रहे थे, “पढ़िए, सनसनीखेज समाचार पढ़िए।”
शहर के पहले एडस रोगी की पहचान हुई है। प्रतिष्ठित परिवार की वह लड़की आधीरात को हस्पताल से गायब है।
पढ़िए। पढ़िए। ताजा खबर।
इस शहर में भी एडस का बोलबाला ! कई धनी व्यापार, अमीर युवक और प्रौढ़ प्रशासकों में दहशत फैल गयी।
सारे शहर में गली कूचों से लेकर चाय की दुकान, पानी की दुकान और बस अड्डे के चौराहे तक हर जगह वही चर्चा चल रही थी। लेकिन कोई यह नहीं जान पा रहा था कि वह लड़की कौन है ? किस मध्ववित्त परिवार की है ? जहाँ तक संभव हो उस लड़की के परिचय को गुप्त रखा गया था। पत्रकार लगातार प्रश्न-बाणों से हस्पताल के अधिकारियों को घायल किये जा रहे थे।
फिर भी प्रशासक, पुलिस और हस्पताल की तरफ से उस घटना को और उस लड़की के परिचय को प्रकाश में न लाने की भरसक कोशिश की जा रही थी। सुबह इस घटना को जानने के बाद भेषज विशेषज्ञ तथा मुख्य चिकित्साधिकारी ने सलाह-मशविरा करके, इस घटना के पर्दाफाश होने से पहले उस लड़की के युवा-रिश्तेदार को एकांत में बुलाकर कहीं कुछ बिना बताए घर लौट जाने का निर्देश दिया गया। काफी निष्ठा के साथ वह युवक घटना की गंभीरता को महसूस करते हुए, दूसरों को पता लगने से पहले हस्पताल से जाकर अपने नाते-रिश्तेदारों को बता दिया कि यह बात यथा-संभव बाहर प्रगट न हो।
इधर पूरे शहर में एडस की बीमारी से पीड़ित उस युवती के हस्पताल से अन्तर्द्धान हो जाने को लेकर नुक्ताचीनी चल रही थी। इस बीच चौबीस घण्टे से ज्यादा समय बीत चुका था। बह लड़की एक सुरक्षित स्थान में उतर चुकी थीं। वह शहर उसके लिए नया और पूरी तरह अनजान शहर था।
अनजान और अपरिचित लोगों की भीड़ में वह खो जाने की कोशा कर रही थी। धीरे-धीरे उसका मानसिक तनाव कम होता जा रहा था। एडस की भयावहता को लेकर वह सजग थी। इसलिए निश्चित मृत्यु से भेंट होने के बाकी संभाव्य दिनों की गिन्ती करनी शुरु कर दी ।
भागने की सुनियोजित योजना बनाने और उसे सफलता के साथ कार्यान्वित करने की व्यस्तता में वह थोड़ी देर के लिए एडस की भयावहता और उसके अंतिम परिणाम को भूल गयी थी।
वह साधन हीन नहीं थी। उसके पास अच्छी-खासी रकम थी। हाथ में पाँच तोले का सोने का ब्रासलेट था। कान में हीरे खचित टॉप थे। गले में प्लैटिनम कोटेड तीन-चार तोले की चेन थी। हस्पताल छोड़ते समय मॅनि पर्स और गाँधीजी की लिखी किताब “माइ एक्सपेरिमेंट विद ट्रूथ”, जिसे वह हस्पताल में पढ़ रही थी, को भी लाना नहीं भूली थी।
उस लड़की ने मन में तय किया कि वह उस बड़े शहर में अपेक्षाकृत एक रास्ते लॅज में रहेगी। उसके लिए कुछ जरूरी चीजें वह खरीद लेगी और आगे की कार्य-शैली पर विचार करेगी। हो सकता है कि मौत का इंतजार करते-करते, दिन गिनते-गिनते मौत आ जाएगी।
इस लुभाने वाले शरीर का दावेदार कोई नहीं होगा। महानगर के मेहतर उसे जमीन में गाढ़ देंगे या फिर गंगा में बहा देंगे।
वह लड़की काफी बीमार थी। लेकिन उसकी प्रबल मानसिक दृढ़ता उसे आगे बढ़ने में सहायता पहुँचा रही थी। वह प्रेम नामक लॅज में पहुँची।
उस नाम को पढ़ कर काफी देर तक मन-ही-मन उपहास करती रही और विभोर भी हुई। उसके पास खाने-पीने की कोई चीज थी नहीं। पाव रोटी और केला लाने की फरमाइश करके वह कमरा नम्बर 201 में चली गयी। होटल बॅय ने आकर कमरे को सजागा।
अंग्रेजी अखबार रख दिया। चैनल टी.वी. का स्विच ऑन किया। फिर जॅग में पानी भरकर दोनों गिलास धोकर टी’पय पर रख कर चला गया। वह लड़की सहसा थकावट महसूस करने लगी और हाल ही सजे हुए बिस्तर पर लेट गयी। डबल रोटी और केला लाने के लिए भेजे गये लड़के का वह इंतजार करने लगी। शावॅर के नीचे काफी देर तक खड़े होने की इच्छा उसमें जागने लगी। कमरा छोटा था।
पर साफ-सुथरा था मध्यवित्तीय आकांक्षाओ को ध्यान में रख कर सभी उपकरणों की व्यवस्था की गयी थी। होटल केव्यापार में प्रतिस्पर्द्धा होने के कारण किराया भी तीन सौ तक सीमित था। इससे कम किराये के आवास के बारे में वह लड़की सोच भी नहीं सकी। टी.वी. में ‘बैग पाइपर ह्विस्की’ का विज्ञापन देख कर उसमें दो पैग लाने की इच्छा जागी। काफी दिनों से समय की अलग-अलग आवश्यकताओ को टाल न पाने के कारण वह अंग्रेजी शराब पीती रही है।
कॉल बेल की आवाज से उसकी भावना का सूत्र जो घनीभूत हो रहा था, टूट-सा गया। उसने दरवाजा खोला और मँगवायी गई चीजों को रख कर होटल बॅय का धन्यवाद करते हुए दरवाजा बन्द कर दिया।
उसके पास कपड़े-लत्ते नहीं थे। वह बाय रूम में गई औरपूरी तरह उलग्न होकर नहाने का निर्णय लिया। आईने के सामने खड़े होकर बिखरे हुए बालों पर कंधा हल्का-सा फेरते हुए बालों को सिर के ऊपर बाँध दिया। मूरझाये हुए चेहरे पर उसे चमक नजर आयी। वह आईने में चेहरे को बार-बार निहारते हुए अपने ही चेहरे को पढ़ने लगी। आईने से आँखें हटाकर वह अपने शरीरपर निगाह दौड़ाने लगी।
हाथ फेरने लगी नाभि, सीना, गला और सुगठित भुजाओं पर। शरीर उसे लुभावना लगने लगा। वह पैरों की ओर देखने लगी। बेदाग पैर, कोमल जाँघें और गहरी नाभि के नीचे जमी हुई हल्की-सी अनावश्यक चर्बी। लेकिन खूब आकर्षण था उसमें। बायें स्तन की दायीं ओर के तिल के निशान पर उसकी नजर गयी। उसे महसूस हुआ कि सभी आकर्षणों का मुख्य केन्द्र-विन्दु ये स्तन हैं, जो तनिक झुके हुए हैं। पर वैसे ही उद्धत हैं। उसी औद्धत्य की ओर खिंचे हुए आ रहे थे किशोरों से लेकर बूढ़ों तक के अतृप्त नयन। उम्र तीस को छूने वाली है।
और दो महीनों से थोड़े कम दिन बाकी हैं। इक्कीस जुलाई को आनेवाली हैं उसकी तीसवीं सालगिरह। कुछ और देर तक अपने उलग्न शरीर को पढ़ने की यद्यपि इच्छा हो रही थीं, पर उसका शरीर शिथिल होने लगा था। वह शावॅर खोल कर खड़ी हो गयी। शरीर पर ठण्डा पानी पड़ते ही वह थर-थर कॉपने लगी। इस बात को वह भूल गयी थी कि उसके बदन से बुखार गया नहीं है। वह फिर से सजग हो उठी।
प्रवहमान घटना की उत्तेजना के कारण वह बुखार के प्रकोप के काबू में नहीं आ पायी थी। शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति कम हो चुकी थी। एच.आई.वी. के भूताणु शरीर के प्रत्येक जीवकोष की जीवनी-शक्ति को खत्म करते जा रहे थे। ठण्डे पानी से नहाना खतरे से खाली नहीं था। ऊपर से पानी भी नई जगह का। निमोनिया भी हो सकता था। बुखार होने के कारण बदन भी सुन्न लग रहा था।
होटल के दिये गये तौलिये से उसने रगड़ कर बदन को पोंछा। सभी अवयवों से पानी की बूँदे कमल के पत्तों पर जल कणों के फिसलने की तरह फिसल रही थीं। उसके कोमल शरीर की बल्लरी, मसृण अवयव ज्यादा सतेज दिखाई पड़े।
लम्बी ग्रीवा और पृथल नितम्बों के बाद जब वह अपनी सुगठित जाँघों से पानी की बूँदों को पोंछ रही थी, तब उसे लगा कि आईने के सामने वह किसी मध्ययुगीन हवेली के अन्तपुर में सुशोभित शंखमर्मर के पत्थर पर किसी निपुण कारीगर के कुशल हाथों से तराशी हुई एक लाजवाब रूपसी की मूर्ति है। भगवान के आगे हाथ जोड़कर उसने खुद को न्योछावर करना चाहा।
फिर से जब उसने आँखें खोलकर आईने का देखा, वह लड़की अपने खुले अवयवों को निहार नहीं सकी। उसे संकोच हुआ। उस पल उसने निहायत अपने खुले वक्ष-स्थल और नाभि के निचले हिस्से को अत्यंत असहाय होकर ढक लेना चाहा। सचमुच सादी से शीघ्र अपने बदन को ढक लेने के बाद वह आश्वस्त हुई।
उसने तय किया कि अब कभी भी वह किसी के सामने उलग्न नहीं होगी। राकेश के चाहने से भी उसके सामने नहीं। समय खत्म हो रहा था। आज यदि वह अपने शहर में होती, तो सब से ज्यादा घृण्य और वर्ज्य वस्तु के रूप में देखी जाती। लेकिन यहाँ उसे कोई नहीं पहचानता। इसलिए वह ग्रहणीय है। पराये गाँव के श्मशान में डर नहीं लगता। उसी तरह पराये शहर में आज उसे डर बिलकुल नहीं लग रहा था।
जिन्दगी किसे प्यारी नहीं होती ? कौन जीना नहीं चाहता ? अंतिम क्षणों में जीने की आशा लिये एक मुमूर्ष व्यक्ति भी कोरामिन इंजेक्शन लेना चाहता है। खुद के प्रति ममता का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। यद्यपि अंतिम परिणति से वह अवगत रहता है।
उसे भूख लगने लगी। उसके पास खाने की जो भी चीजें थीं, उसने मन भर के खाया। फिर टी.वी. का स्विच ऑफ करके बिजली बुझा कर सोने की कोशिश करने लगी। जब परीक्षा चलती है, उस समय परिक्षार्थियों को पढ़ते समय खूब नींद आती है। लेकिन जिस दिन परीक्षा खत्म हो जाती है, उस दिन सोने की चेष्टा करने से भी नींद नहीं आती। मन हल्का हो जाता है। वह भी एक परिक्षार्थी की तरह हल्का महसूस कर रही थी !
थोड़ी देर के लिए मन से सारी चिन्ता और खिन्नता दूर हो गयी थीं। वह चाहते हुए भी सो नहीं पा रही थी। निर्जन कमरे के एकान्त परिवेश में अस्तव्यस्त कपड़े और बिखरे कों के साथ अपनी तनु-लता को फैला कर वह बिस्तर पर लेटी हुई थी।
आँखों में नींद नहीं आ रही थी। मन के परदे से अतीत झाँक रहा था। आँखों के सामने किसी फिल्म के दृश्यों की तरह उसके जीवन की कई घटनाओं की प्रुनरावृत्ति होने लगी थी। सावन के तैरते बादल जिस तरह बिना बाधा के निरन्तर तैरते जाते हैं। उसी तरह उसका अतीत तैरते हुए लौट कर आ रहा था उसकी आँखों के सामने।
हस्पताल छोड़ने के निर्णय से लेकर अब तक वह बार-बार राकेश को याद करती रही है। राकेश साधारण मनुष्य नहीं है, वह देवता है। अभी उसे पुलिस सब इंस्पेक्टर की नौकरी मिली है। पता नहीं उसे वह नौकरी कैसे अच्छी लगी ? कैसे अड़जॅस्ट कर रहा होगा। उसके मिजाज के लड़कों के लिए बैंक की नौकरी ही ठीक है। लेकिन आजकल नौकरी का बड़ा अकाल है। इसलिए अपनी पसंद या नापसंद की बात ही कहाँ उठती।
रोजगार का कोई भी मार्ग मिल जाए तो भविष्य की सुरक्षा सौ प्रतिशत हो जाती है। रोजगार की सुरक्षा आज के युवा समाज के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए पसंद के अनुसार चुनने का मौका भी मिलता नहीं है।
राकेश को वह खूब नजदीक से देख रही थी। वैसा ही शांत और सरल। आँखों में गहराई। उन्नत ललाट। पाँच फुट आठ इंच का लंबा शरीर। गौर वर्ण। सधे हुए बोल। बातचीत धीरे-धीरे करता। फिर उसमें आ जाती चुप्पी और नीरवता। नीरवता को तोड़ते हुए कवि देवदास छोटराय की कविता की वे पंक्तियाँ, जो उसे प्रिय थीं, याद आ गयीं।
“तू थी नहीं कहीं, तू भूल गयी अपना ही वचन,
तूने सौंपा न कभी हृदय, न सौंपा कभी अपना तन।”
राकेश के पास एक दर्द भरा हृदय था। उसे किसी भी बात से एतराज नहीं था। उसके प्राण में साहित्य बसता था। वह प्यार में बेसुध हो जाता था। एक खूबसूरत सुबह के इंतजार में था। शरीर से वह ज्यादा महत्व मन को देता था।
शरीर के लिए वह कभी लालाचित नहीं हुआ। बस कभी हथेली या माथे पर एक चुम्बन आँकता था। यह लड़की उसे एकान्त क्षणों में निबिड़ आलिंगन में जब बाँधना चाहती थी, तब वह कहता था कि इंतजार करो। प्रेम प्राप्ति में नहीं, इंतजार में होता है। प्यार की परीक्षा होती है विरह की कसौटी पर । इंतजार में दर्द होता है। पर उसकी मीठी अनुभूति जीवन का पाथेय बन जाती है।
स्वप्न का ईंधन बन जाती है। उस समय को आने दो। तुम्हें बिलकुल नहीं छोड़ूँगा। तुम छूट जाने के लिए मिन्नत करती रहोगी और उसी पल तुम्हें मिलती रहेगी सभी आकांक्षाओं की प्राप्ति की पूर्णता।
राकेश को निगाह से दूर धकेलते हुए सहसा आकर खड़े हो गये थे उसके अपने निरीह पिताजी। जीवन के संघर्ष में वे घायल हो गये थें। अधिक अभाव के कारण अभी तक उनकी रीढ़ की हड्ड़ी सीधी नहीं हो पायी थी। एक असहाय मेमना जैसा हो गये थे उसके पिताजी।
पीड़ा से सराबोर वे अपने दुःख और अपनी असमर्थता के कारण उत्पन्न विषाद से खिन्न थे। सभी प्रतिकूल परिस्थितियों का नीरव विषपान करते हुए मानो वे नीलकंठ बन चुके थे।
सहसा चौंक उठी कह लड़की। जैसे उसके पिताजी खूब नजदीक से उसे विकल होकर बुला रहे हो। रोजी, राजी…।
मेरे पास आओ बेटी।
नाराज मत हो बेटी। मैंने सब कुछ सुन लिया है। तू मुझे माफ कर दे। मैं अक्षम हूँ। मैंने तुझे जन्म दिया मगर जिन्दगी दे नहीं सका। तुझे बना नहीं सका। मेरे सपने का निट्टी का खिलौना मेरी ही असामर्थ्य के कारण टूट गया। किसी को पता तक नहीं चलेगा। बेटी, तू मेरे पास लौट आ। तुझ से भले ही सभी नफरत करें, पर मेरे लिये तू देवी है।
एक बाती की तरह तिल-तिल पल-पल जल कर, जिस तरह दूसरों को बनाने की कोशिश की है, उसे मैंने खुद देखा है, महसूस किया है। दुनिया उठाएगी। नफरत करेगी और दुत्कारेगी। मगर कभी देखा है कि बुरे दिनों में किसी एक ने भी सहायता पहुँचायी है ?
किसी एक ने भूखे को भोजन दिया है ? रास्ते में हादसे का शिकर कोई व्यक्ति जब खून से लथपथ होकर, सहायता के लिए विकल होकर चीत्कार करता रहता है, उस समय हिम्मत के साथ कोई उसके पास जाता नहीं है। पुलिस के भय से भाग जाना जहाँ लोगों का आचरण बन गया हो, वहाँ समाज के नाम से ये तमाशा क्यों ? तुम नाराज हो बेटी। इस अक्षम असमर्थ बाप को माफ कर दे। मेरे गला सूख रहा है। अब आवाज सुनाई नहीं पड़ रही है। मुझे एक गिलास पानी नहीं पिलाएगी।
निर्मल साहू की बेटी रोजी है। शिक्षित परिवार है। माँ और पिताजी दोनों उच्च शिक्षित हैं। उनकी बड़ी बेटी है रोजी। घर में और पाँच भाई-बहन हैं। खूब लाड़-प्यार से बचपन गुजरा था। परिवार में भरपूर आत्मीयता थी। स्वर्गीय आनन्द की फल्गु परिवार पर झर रही थी। परिवार के सभी सदस्यों की बातचीत से मध्यवित्त परिवार की चाल-ढ़ाल और जीवन-यात्रा की झलक मिल रही थी। बच्चे अंग्रेजी-माध्यम स्कूल में पढ़ रहे थे।
परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी थी। व्यापार भी खूब अच्छा चल रहा था। मतान्तर या मनान्तर कुछ भी नहीं था। सौभाग्य के बेशुमार सपने उमड़ रहे थे। कुल मिलाकर निर्मल साहू का परिवार एक सुखी परिवार था। शहर में उनका सम्मान था। यद्यपि पड़ोसियों के साथ उनका संपर्क अच्छा था, फिर भी पड़ोशी ईर्ष्या करते थे। बच्चे शशिकला की तरह बड़े हो रहे थे। प्रीति देवी की सीधी देख-रेख में और ट्यूटर की चेष्टा के कारण बच्चे मेधावी विद्यार्थियों में गिने जाते थे।
अर्थ ही सभी अनर्थों का मूल कारण होता है। अर्थहीन पुरुष पशु के समान हो जाता हैं। इस बात को विवाकानन्द ने कहा है। सौभाग्य हमेशा सब का साथ नहीं देता। जब बुरा वक्त आता है, तो वह संगी-साथियों को साथ लेकर आता है। आर्थिक तंगी और परेशानियाँ बाध को भी बकरी बना देती है।
गरीबी की कोई जाति नहीं होती। गरीब की बीबी सब की भाभी लगती है। नजाने भाग्य देवी उन पर अचानक नाराज क्यों हो गयी ? शायद ईश्वर से भी उनका सुख बर्दाश्त नहीं हो सका। व्यापार में नुकसान पर नुकसान होने लगा। फिसलने वाला पैर नीचे की ओर खिसकता जाता है। उस समय रोजी बारह तेरह साल की थी। उसने सुख-दुःख सब कुछ देखा है और समझा है।
जो पिता कभी भी गुस्सा नहीं करते थे जिनके चेहरे पर हमेशा मुसकान बनी रहती थी, वे छोटी-छोटी बातों पर बेचैन और परेशान होने लगे। उनके स्वभाव में चिड़चिड़ापन आ गया। मॉ कुछ कहती तो उस कर झल्ला उठते। कई दिनों तक घर से दूर रहते। इतने बड़े परिवार को चलाने में दिक्कत आने लगी। दो साल के अन्दर बच्चों को कपड़े-लत्ते और दो वक्त की रोटी मुहैया कराना संभव नहीं हो सका।
घर के बाहरी बरामदे में मुरझाया हुआ चेहरा लिए वे हमेशा बैठे रहते। आँखों में उदासी लिए निहारते रहते। नियमित खाना-पीनी भी नहीं करते। स्त्राr और बच्चों के साथ ढंग से बातचीत भी नहीं करते। उदास आँखों से शून्य आकाश की ओर निहारते हुए हताश होकर लम्बी आहें भरने वाले पिताजी को देख कर वह भयभीत हो उठती। पिताजी उस समय युवक थे। उम्र पैंतीस के करीब।
माँ तीस-बत्तीस की रही होगी। बुरे वक्त ने परिवार की रीढ़ को खोखला बना दिया था। हर तरफ सिर्फ हताशा का वातावरण। दुःख ही दुःख। नहीं-नहीं का बोलबाला। छोटे-छोटे भाई बहन कुछ दिनों तक समझ नहीं सके। धीरे-धीरे समझ जाने के बाद आदत पड़ गयी। परेशानियों में भी मुँह नहीं खोला। बल्कि नीरव होकर आँखों से आँसू बहाते रहे। आँसुओं की भी एक सीमा होती है। पिताजी बीमार पड़ गये।
उन्हें पेट की बीमारी सताने लगी। कभी-कभी पीड़ा से वे चीख उठते। माँ के जेवरात घर की कीमती चीजें खत्म हो गयीं। पिताजी जब व्यापार करते थे, उस समय उन्होंने कुछ लोगों से उधार लिया था। थोड़े दिनो तक इंतजार करने के बाद उन लोगों का घर में ताँता लग गया। कई बार पिताजी के साथ उन लोगों की कहासुनी हुई। वे पिताजी की बेइज्जती करने से पीछे नहीं हटे।
नाते-रिश्तेदार कब तक सहायता पहुँचाते ? पड़ोसी सहानुभूति की बातें ही करते। पिताजी निर्धन, निकम्मा और नीरव हो गये थे। उस समय बेणु मामा हमारे घर में आ पहुँचे । वे कुछ ही दिनों में देवदूत बन गये। वे किसी तरह रिश्तेदारी में मामा नहीं थे। पिताजी को भैया बोलते थे। उम्र में उनसे छोटे थे या बड़े उन्हें पता। लेकिन माँ उन्हें बेणु बाबू कहा करती थी। माँ के बताने पर सभी बच्चे उन्हें मामा कहते थे।
वे काफी धनवान थे। पहले-पहले वे हफ्ते में एक-दो बार आते थे। कुछ दिनों के बाद रोज कम-से-कम एक बार आने लगे। लेकिन छ महीनों के बाद प्राय सुबह और शाम नियमित आने लगे। घर में आने से माँ के साथ ही अधिकतर गपशप करते। चूँकि पिताजी बाहरवाले बरामदे में बैठे रहते थे, इसलिए उनके घर में बैठने में किसीको कोई आपत्ति नहीं थी। पिताजी भी कभी-कभार बाहर जाकर देर रात को लौटते थे।
तब तक बेणु मामा हमारे घर में ही रहते कभी-कभी वे आधी रात तक हमारे घर में ठहर जाते। फिर वे परिवार के सर्वमय कर्त्ता बन गये। माँ के निर्देश के अनुसार ही वे सारा काम करते थे। परिवार की देख-भाल करते थे। बच्चों की पढ़ाई, खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने सभी में धीरे-धीरे दखल देने लगे। माँ के कठोर अनुशासन के कारण डरके मारे सभी बच्चे उन्हें जरूरत से ज्यादा अपना समझ कर इज्जत देने लगे।
बह चौदह साल की उम्र में सयानी हो गयी थी और धीरे-धीरे सबकुछ समझने लगी थी। माँ के साथ बेणु मामा का संपर्क साधारण नहीं था, इस बात को समझने में उसे देर नहीं लगी थी। एक दो बार उसने माँ को असंयत स्थिति में बेणु मामा की गोद में दरवाजे की ओट से देखा था। उसे लगा कि पिताजी जरूर इस बात को जानते थे। पर मजबूरी में चुप रह जाते थे। माँ के प्रभाव और शासन के आगे किसी की हिम्मत नहीं होती थी। सभी उसके काफी डरते थे। उसने सभी की जरुरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी ली थी और बिना किसी अड़चन के उन सब को पूरा करती थी।
दिन पर दिन उसकी माँ निर्विकार और कठोर होती जा रही थी। सभी कमजोरियों को अपनी आँखों के सामने देखने के बाद वह अपनी माँ से खूब डरने लगी थी। कभी-कभी उसके मन में माँ के प्रति सहानुभूति भी उमड़ती थी। तथापि वह अपने माँ के सामने सहज नहीं हो पा रही थी। माँ को देखने से लगता था कि वह एक कठिन परीक्षा का सामना कर रही थी। इसलिए उसका अन्तर्दाह उसे हर पल कचोट रहा था।
लेकिन बेणु मामा को छोड़ देने या उसके लिए तरवाजा बन्द कर देने की धृष्टता करना संपूर्ण असंभव था। धीरे-धीरे वे परिवार के केन्द्रबिन्दु बन गये थे। पिताजी की उपस्थिति परिवार के लिए नगण्य थी। बेणु मामा के आने-जाने के कारण परिवार आराम से चल रहा था।
वह बड़ी होती जा रही थी।
उसके सीने के मांस-पिण्ड शक्त होते जा रहे थे। वह दिन पर दिन अपूर्व सुन्दरी बनती जा रही थी। वह खुद पर विश्वास नहीं कर पा रही थी। कृष्णचूड़ा के पेड़ पर फूलों के गुच्छों के उभर आने की तरह, उसमें इतनी मांसलता आती कहाँ से थी। इसलिए उस पर मामा का स्नेह खूब बढ़ने लगा था। वे उसे पास बुलाते थे। पढ़ाई-लिखाई की खबर लेते थे। बेणु मामा के पास बैठते ही माँ तीखी नजर से देखती। कभी-कभी बहाल बनाकर उसे बुला लेती। रोजी समझ जाती थी। बेणु मामा निकट से निकटतर होने की खूब कोशिश करते।
किसी चीज की जरूरत पड़ती, तो फौरन साथ लेकर खरीदने की बात करते। माँ रोक लेती थी। पिताजी पर झुंझला उठती । पिताजी चुपचाप रह जाते। बेणु मामा के सभी नखरों के बावजूद माँ भी चुप रहती। समय बीतता जाता था।
रोजी को याद है उस मनहूस रात की घटना। बी.ए. की परीक्षाएँ खत्म हो चुकी थीं। बेणु मामा को देखने से लगता था मानो नर-मांस लोभी कोई कमीना राक्षस उसकी आँखों के सामने आ-जा रहा हो। इस बीच उनके प्रति उसकी धारणा पूरी तरह बदल चुकी थी। वह बड़ी होशियारी से उन्हें टाल जाती थी।
माँ उसे खूब प्यार करती थी। इन सब बातों को जानने के बाद उसके प्रति सहृदयता प्रकट करती थी। असहाय स्थिति में उसे पास बुलाकर उसके चेहरे और ललाट को सहलाती। बिखरे हुए बालों को सँवार देती। मन लगाकर पढ़ने की सलाह देती। वह सिर हिलाती, जैसे सब कुछ समझ गयी हो। क्योंकि वह माँ से खूब डरती थी और उसके सामने सहज नहीं हो पाती थी।
परीक्षाएँ खत्म हो गयी थीं। जून का महीना था। बूँदा-बाँदी चल रही थी। यह मौसिमी वर्षा के आगमन की सूचना थी। दोपहर की आँधी से बिजली गुम हो गयी थी। लालटेन जला कर दूसरे भाई-बहन पढ़ाई कर रहे थे। वह घर के काम-काज में माँ का हाथ बँटाती थी। पर उस दिन रसोई की पूरी जिम्मेदारी उसीकी थी। बेणु मामा उसी रसोई घर के आसपास मँडरा रहे थे।
माँ की साढ़ी पहन कर, पल्लू को कमर में बाँधकर वह रसोई में लगी हुई थी। जल्दी रसोई न हो तो छोटे-छोटे भाई-बहन भूखे सो जाएँगे। उन्हें नींद से जगाकर फिर कौन खिलाएगा ? माँ तो बीमार थी। बुखार से काँप रही थी।
बेणु मामा कहीं जा नहीं रहे थे। रोजी को डर लग रहा था। अँधेरे से नहीं, उस आदमी से। वह बीस साल की युवती थी। इसलिए मामा की आँखो को पढ़ने और उसकी साँसों को पहचानने में उस दिन उसने गलती नहीं की थी। रसोई घर के ड्योढ़ी के सामने खड़े थे बेणु मामा। वह बाहर निकल रही थी कि उसे कसकर पकड़ लिया। खींच कर ले गये रसोई घर के अन्दर। सीधा उसके सीने को दोनों हाथों से दबोचते हुए उसके मुँह, ललाट, गाल और होठों पर चुम्बन देते गये। वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गयी।
उस राक्षस के चंगुल से बचने का कोई उपाय न था। चीखने और चिल्लाने का कोई मौका नहीं था। पिताजी थे नहीं और माँ सो रही थी। छोटे भाई-बहन दूसरे कमरे में पढ़ रहे थे। वह कुछ देर बाद उसके चंगुल से निकल आयी और चुपचाप अँधेरे कमरे में बैठ कर आँसू बहाने लगी। उस दिन तक वह निष्कलंक थी, पावन थी। उसे किसी ने स्पर्श तक नहीं किया था। लेकिन आश्चर्य की बात है कि वह आदमी निर्विकार था और बड़े ही सहज ढैंग से यों ही रात भर घर में टिका रहा।
वह काफी सोचती रही। परिस्थितियों से वह असजग नहीं थी। वह अनुभव कर रही थी कि माँ के पास कोई समाधान नहीं है। इसलिए उसने दृढ़ होकर तय किया कि वह उस घटना को एक हादसा समझकर भूल जाएगी। फिर वह सोचने लगी कि यदि वह आदमखोर बाघ नर-रक्त के लोभ से फिर कभी छलांग लगाए तो ? एक बार मनुष्य के खून का स्वाद चखने के बाद जनपद में घुसता है। इसलिए उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि कि वह राक्षस इतने में शान्त हो जाएगा।
उसने सोचा कि बी.ए. का रिजल्ट निकल आये तो वह किसी दूर जगह चली जाएगी। वहीं पढ़ाई करेगी। लेकिन इसके लिए उसे रूपये पैसे कौन देगा ? माँ से एक दिन पूछा कि वह कहाँ एम.ए. की पढ़ाई करेगी ?
माँ ने कहा कि रिजल्ट आने दो। उसने कहा कि रिजल्ट अच्छा होगा ही। माँ ने कहा कि तब बेणु मामा जो निर्णय लेंगे। वही पढ़ाई करने के लिए पैसा देंगे। कोई और है क्या ? मेरे पास क्या रखा है, बेटी ? आगे तेरी किस्मत। माँ उदास हो गयी।
बर्गियों के आक्रमण की तरह बेणु मामा आक्रमण करते रहे। काफी दिनों तक प्रतिहत करने के बाद एक दिन वह असहाय हो गयी। मामा उस पर अनायास छलांग लगाकर जितना खून चूसते बना चूसता गया, फिर शांत हो गया। तूफान से वह घायल हुई, पर बरदाश्त कर गयी। इस तरह के कई हादसों के बाद रोजी ने माँ को पराक्ष में इशारा किया। माँ राती रही। फिर चुप रही। पिताजी को अभिशाप देती रही।
बेणु मामा ने पढ़ाई का इंतजाम कर दिया। वह पढ़ने के लिए चली गयी। बीच-बीच में बेणु मामा जाते थे। उसे रूपये-पैसे दे आते थे।
वहीं एम.ए. की पढ़ाई करते समय उसकी भेंट हुई थी राकेश से। राकेश जी जान से रोनी को चाहता था। कईबार रोजी ने उसे सच बताना चाहा। राकेश ने उसे मना किया। वह कहता कि वह अतीत को कुरेदना नहीं चाहता। बल्कि बर्तमान में जीना चाहता है, भविष्य को बनाना चाहता है। जिस मिट्टी में अतीत का दस्यु रत्नाकर एक दिन बाल्मीकि बन जाता है, उस मिट्टी की सन्तान होकर तुम्हारे अतीत से मुझे क्या खोजना है ? रोजी कुछ कह नहीं पाती। कोशिश करती कि वह किसी और का शिकार न बने।
उनका और राकेश का संपर्क छिप नहीं पाता है। बेणु नामा राकेश को बरदाश्त नहीं कर पाये। उसकी उपस्थिति से वे बेचैन हो उठे। माँ के हस्तक्षेप के बाद बेणु मामा उसके और राकेश के संपर्क को तोड़ने के षड़यंत्र से विरत हुए।
समय के साथ बेणु मामा का असली रूप सामने आने लगा। उनके चरित्र और चलन के बारे में सब को पता है। लेकिन कोई मुँह नहीं खोलता। उनके पास कुछ ठोस प्रमाणों के हाने का अनुमान किया जाता है। वे चाहेंगे तो सब की कलई खोल कर सड़क पर ला खड़ा कर देंगे। इसलिए आस-पड़ोस के लोग उनकी उपस्थिति को सहजता के साथ स्वीकार करने लगे।
पहले-पहले कुछ दिनों तक चटखारे भरते हुए हँसी-ठिठोली चलती रही। फिर प्रछन्न इशारे, व्यंग्योक्ति होने लगी। पर धीरे-धीरे मामा का आना-जाना, रहना उन्हें सामान्य लगने लगा। उस जैसे एक खल स्वभाव के व्यक्ति को आहत करके परिवार की बची-खुची इज्जत को कोई मिट्टी में मिलना चाह नहीं रहा था। माँ बूढ़ी होती जा रही थी। वह उस क्रूर व्यक्ति की रोज की खुराक, उपभोग की सामग्री बन गयी थी। रोजी लॉज में लोटे-लेटे अपलक आँखों से निस्संकोच होकर उन सब दृश्यों की पुनरावृत्ति को देख रही थी। वह करवट बदलने लगी।
लेकिन बेणु मामा के लिए वह एक और आकर्षण का केन्द्र बिन्दु बन गयी थी। वह आदमी सिर्फ दुराचारी और ल्sंपट ही नहीं था, वह महत्वाकांक्षी भी था। वह अपना काम हासिल करने के लिए उसे समर्पित करके, दूसरों को भेंट में देना चाहता था। बीच-बीच में उसकी निगाह उस पर भी पड़ती थी। किंतु ढलती उम्र के कारण वह सिर्फ एक पालतू बिल्ली की तरह उसके स्पर्श-सुख को अनुभव करने के अलावा किसी और हरकत को अंजाम नहीं दे रहा था।
बेणु मामा का व्यापार काफी फैला हुआ था। अनेक कराड़पति व्यापारी, प्रभावशाली राजनैतिक नेता, ऊँचे ओहदे पर आसीन प्रौढ़ पशासक और खूँख्वार अन्तर-राज्य माफियाओं के साथ बेणु मामा का निकट का संपर्क था। टुनि, मधु, सागरिका, विशाखा, अहल्या, मेरी, शकिला, शातुन, परविन आदि कई गुवतियों के साथ उनका गहरा संपर्क था। वे बेणु मामा को भैया, चाचा, ताऊ, अंकल आदि कहती थीं। इन लड़कियों को मुट्ठी में रख कर वह अपना व्यापार और प्रतिष्ठा का साम्राज्य चला रहे थे।
वह एम.ए. पास करने के बाद घर में बेकार बैठी हुई थी। बेणु मामा ने अपना नया खेल खेलना शुरू किया। वे कहते कि जीवन में ऊपर उठने के लिए त्याग की आवश्यकता है। कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। धन ही सभी सफलताओं की कुंजी है। सीढ़ी से ऊपर पहुँचने के लिए धन की आवश्यकता है। परिवार को चलाने के लिए अब भी उन पर निर्भर करना पड़ता था।
एक दिन वे मुझे ले गये थे शासक दल के एक प्रतिष्ठित नेता के पास। राज्य-प्रशासन पर उनका अखण्ड अधिकार था। बुड्ढ़े की उम्र सत्तर के करीब होगी। परन्तु देखने से लगता था कि एक भी बाल सफेद नहीं हुआ है। दाढ़ी बनवा कर, दूध की तरह सफेद चमाचम धोती और कुरता पहन कर वे वातानुकूलित कोठरी में बैठे हुए थे। शाम के सात बज रहे थे। ओड़िआ समाचार की सुर्खियों को एक युवती फर्राटे से पढ़ती जा रही थी। बेणु मामा अन्दर घुसे। साथ में रोजी थी और कोई नहीं था।
हरीश बाबू नमस्कार।
नमस्कार, नमस्कार। आओ, आओ बेणु बाबू।
आओ बेटी।
मेरी भतीजी है, बेणु मामा ने कहा।
कुछ देर तक बातचीत करने के बाद बेणु मामा जाने को हुए और कहने लगेö बेटी रोजी तू बैठा रह। मैं अभी दस मिनट में आ रहा हूँ। हरीश बाबू, बेणु बाबू को विदा करके आये। दरवाजा बन्द किया। अपने पास बुलाया ।
उसे साफ याद है कि वहाँ जहाँ बैठी थी, वहीं बैठी रही। हिली तक नहीं। हरीश बाबू उसके पास आ पहुँचे।
उसके हाथ को पकड़ा। कुछ देर बाद उसे अपने पास भींचने लगे। उससे लिपट गये। वह निर्विकार रही, चीकी भी नहीं।
बुड्ढ़ा कुछ देर तक उछलता-कुदता रहा। सिर्फ हाथ फेरता रहा एड़ी से लेकर चोटी तक। फिर उठ खड़ा हुआ। दीवारवाली अलमारी खोलकर गिलास में शराब उँडेलने लगा। गट-गट करते हुए दो गिलास पी गया। पास आकर प्यार करने लगा। कल आने को कहकर कुरते की जेब से दो हजार रूपये निकाल कर दिये।
वह चौंक उठी। कुछ बोल नहीं सकी। रुपये लेने से इनकार किया। हरीश बाबू ने प्यार से उसके सलवार में हाथ डालकर रुपये ठूँस दिये।
एक घण्टे के बाद बेणु मामा आये। हरीश बाबू प्रगल्भ होकर आधे घण्टे तक फिर बतियाते रहे। अगले दिन उस लड़की को लेकर दोपहर को आने के लिए बेणु मामा से अनुरोध किया। मैं बेणु मामा से न कुछ कह सकी, न प्रतिवाद कर सकी।
अगले दिन साढ़ी पहन कर गयी थी। देखते ही बूढ़ा पागल हो गया धोती उठाकर छलांग लगायी। ह्विस्की पीकर मदहोश हो उठा। राज्य का विकास कैसे होगा, लोग कैसे बढ़ेंगे, गरीबी कैसे हटेगी आदि विषयों पर लगातार भाषण देता गया। वह जब साढ़ी खींचने लगा, तो साढ़ी खुल गयी।
गिलास से शराब लुढ़क पड़ी जाँघों पर। पैर से होते हुए बहने लगी। बुड्ढ़े ने जीभ पैर से लगायी। पैर को चाटा, कुत्ता जिस तरह नाली के किनारे पड़ी दावत की गोश्त लगी झूठी पत्तलों को चाटता है। पेटीकोट को उठाया। पैर से चाटते हुए जाँघ तक गया। फिर जब आगे बढ़ने लगा, तो पैर को छिटका देने से बाँया पैर सीने से जा लगा। धड़ाम से गिर पड़ा बुड्ढ़ा। फिर उठा।
कुछ देर तक खेलने की तैयारी करते-करते खेल खत्म हो गया। बुड्ढ़ा बिस्तर पर लुढ़क पड़ा। थोड़ी देर बाद उठ बैठा। पान से सडे हुए दाँतों को निपोरते हुए खें-खें हँसने लगा। गाल पर उभर आये मस्से के कारण उसका चेहरा एक प्रेत-पुरुष के चेहरे की तरह भद्दा नजर आ रहा था। बेड़ रूप के गोदरेज को खोला। पाँच सौ रूपये की गड्ड़ी से कुछ नोट खींच लाया। बिना गिने, बिना हिसाब किये ठूँस दिये ब्लाउज के अन्दर।
वह उठ बैठी थी। बाथ रूम में जाकर साफ होकर उसने सीने से रूपये निकाल कर गिने थे।
कुल दस हजार पाँच सौ रूपये थे। उसे आश्चर्य हुआ। बस, इतना सा के लिए इतने सारे रूपये। अब भ बूड़े को यह पता नहीं है कि संभोग क्या है। फिर भी बिना माँगे इतने सारे रूपये कैसे दे दिये। इस बुड्ड़े को रूपये कहाँ से मिलते हैं। उस दिन से उसका पैर फिसल गया। रूपयों के लिए लोभ के जिस अजगर ने उसके भीतर फन उठाया, वह सिर्फ नये शिकार के शरीर को डंसता गया। कुछ ही दिनों में धन, दौलत, इज्जत उसके पैरों तले सिर नवाने लगे। उसे लगा जैसे वह जमीन से ऊपर उठकर आकाश में उड़ रही थी।
अब उसे बेणु मामा को साथ ले जाने की जरूरत नहीं थी। धन-दौलत की कमी नहीं थी। वातानुकूलित शौकीन गाड़ियाँ उसके घर के सामने आकर रुकती थीं। तनिक सान्निध्य पाने के लिए प्रतिष्ठित लोग घण्टों इंतजार करते ते। उपहारों से उसका घर भर गया था। माँ समझ रही थी कि सौभाग्य के आने का उत्स कहाँ है ? बेणु मामा की सफल तालीम के लिए वह माँ के सामने सीना तान तान कर मुस्कराते हुए शेखी बघार रही थी।
कई बार उसने सभी के सामने कहा था कि अब वह ऊपर उठ कर सफलता के शीर्ष को छू सकती है। क्योंकि अब उसे सही रास्ता मिल चुका है।
उसने उपहास किया। आज रोजी सही ऊँचार्स पर पहुँच चुकी है। सर्वाधिक ऊँचाई पर पहुँचने के लिए अब थोड़े दिन रह गये हैं। क्या वह अकेली इतनी बड़ी सीढ़ी चढ़ सकती थी। आगे वह तो पीछे कई लोगों की लम्बी कतार है। सभी पहुँचेंगे सफलता के उस शीर्ष में, जहा से लौटने का सवाल ही नहीं उठता। बेणु मामा भी हम सफर होंगे। उसकी माँ भी।
बुड्ढ़े ने एक मोबाइल फोन दिया था। पैसा भर रहा था वह। जरूरत पड़ने से बुलाता था। एकाध घण्टा उस पर प्रेतात्मा सवार रहती। फिर वह अच्छा आदमी बन जाता। रोजी लौट आती। रोजी के मुँह से जो बात निकल आती, बुड्ढ़ा उसे पूरा करता। बुड़्ढ़ा एक-दो दिन नहीं देकता तो पागल हो जाता। इस उम्र में भी वह समझ बैठा था कि रोजी सिर्फ उसकी है।
जिस रास्ते पर उसने कदम रखा था, उसमें कइओं को नचाने में उसे आनन्द मिलता था। कम-से-कम सौ लोगों के मोबाइल नम्बर उसके पास थे। उससे एक घण्टे का समय पाने के लिए एक सप्ताह तक इंतजार करते थे वे यौन-कंगाल, कामांध लोग। वह मन-ही-मन आश्चर्य चकित होती थी।
शरीफ लोगों के पहनावे में समाज के जिन लोगों को देखकर कुछ दिन पहले वह सम्मान के साथ सिर झुकाती थी और सोचती थी कि ये खूब बड़े महान और अपहुँच इलाके के विशेष व्यक्ति हैं, उन्हें उसने अपने पास देखा। उनकी रग-रग को परखा। भद्र पहनाव में छिपे रहने वाले असम्य, बर्बर स्वभाव को महसूस किया। उन्हें तुच्छ समझने लगी थी रोजी। उनके कंगाल स्वभाव को धिक्कारती थी। रात के अंधेरे में, दिन दोपहर में, सुबह, शाम बन्द कोठरी में उनके जघन्य स्वरूप से उसकी मुलाकात होती थी।
उनमें ज्यादातर हीनवीर्य, विफल मानसिक रोगी थे। कभी एक दिन भी उनमें से उसे कोई वीर्यवान सुपुरुष नहीं मिला। उन सभी का ध्वज भंग हो चुका था। अत्यधिक कामुकता के कारण उनका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका था। प्राचूर्य में डूबकर वे अपना बाकी का जीवन मदिरा और नारी शरीर के अवयवों में गुजार देना चाहते थे।
वे सब इतना विकारग्रस्त थे कि सोचते ही उसके मन में नफरत उमड़ पड़ती थी। उस प्रभावशाली प्रौढ़ प्रशासक को देखकर उसे आश्चर्य होता था। उसकी स्त्राr अनिंध सुन्दरी थी, किसी देवी की प्रतिमा जैसी। उम्र की छाप उस पर पड़ रहीं पायी थी। उसकी लड़की कालेज में पढ़ती थी। एक दिन किसी अंतरंग क्षण में उसने मदहोश प्रशासक से पूछा कि क्या तुम्हें अपनी पत्नी से शांति नहीं मिलती ? नशे की हालत में वह प्रलाप करने लगा कि वह एक बर्फ है। बर्फ का एक टुकड़ा, बर्फ का एक विशाल पिण्ड है। मैं उसे बिलकुल पसंद नहीं करता। छिö थू, उसकी बात मत करो डार्लिं। यू कम ऑन। आइ लव यू ठू मच।
उसने कहा था कि उनकी बेटी को एक युवक की गोद में सिर रख कर पार्क के एक कोने में झाड़ियों की ओट में सोते हुए देखा था।
उन्होंने निर्विकार ढंग से कहा थाö
अरे यार, सोने दो-सोने दो। अभी उम्र है। इस उम्र में सोएगी नहीं तो सोएगी कब ? वह काफी स्मार्ट है। उसकी माँ की तरह नहीं। तुम्हारी तरह है डार्लिं। कई युवकों की भीड़ उसके पीछे है। आजकल वह अपने दसवें बॉय फ्रेंड के साथ घम रही हैं। मस्ती करने दो यार। इस उम्र में चक्कर नहीं लगाएगी तो लगाएगी कब।
इतना कहकर वे प्रशासक फौरन उठ खड़े हुए और जाकर फिर से एक पैग गटागट पी गये। स्कच उन्हें बहुत प्रिय है, महँगी स्कच। बेशमार दौलत के मालिक हैं। राजनीति के बड़े बड़े पंडित उसकी मुट्ठी में हैं। सब के साथ हर मसले में उनकी दोस्ती है। अच्छी-अच्छी पोस्टिंग राजनैतिक मित्र करवाते रहते हैं। वे ऐश्वर्य और प्राचुर्य में वर्षों से डूबे हुए हैं। उसे भी स्कच पिलाते थे। बड़ा ही सजीला आदमी है। रोजी के साथ ड्रिंक्स लेने में उन्हें बड़ा मजा आता था। वह असाधारण सूझ-बूझ वाला आदमी था।
सबसे निराला था जेवरात का व्यापार करने वाला बाईस साल का वह लड़का। उम्र में उससे छोटा। दोस्तों की बुरी संगति में पड़कर गुमराह हो गया था। भारत के सभी बड़े होटलों में रह आया था। कई अनुभूतियों की वह एक सजीव कहानी है वह। उस पर दया आती है। रोजी पर जेवरात न्योछावर कर डालता था। उसका दीवाना बन गया था। वह कहता था कि देर सारी जगह तलाशने के बाद जो चीज नहीं मिली थी, वह हीरा तुम हो।
मेरे ही शहर में यहाँ, इतने नजदीक। तुम्हें पाने के बाद अब कोई अफसोस नहीं है। वह दिल दे बैठा था। सोचता था कि रोजी सिर्फ उसकी है। उस आवारा लड़के को देखते ही उसे हँसी आती थी।
इस बीच सात साल गुजर चुके थे। परिवार का गुजारा आराम से हो रहा था। भाइ-बहनों की पढ़ाई भी चल रही थी। किसी को किसी चीज की कमी महसूस नहीं हो रही थी। घर छोटा था, उसे बड़ा बना दिया गया। बेणु मामा आ-जा नहीं रहे थे। वे स्थायी रूप में घर में रहने लगे थे। वह उन से ही डरती थी। कहीं उसकी छोटी बहनें उसके रास्ते कदम न रख लें। इस राक्षस के रहते कुछ भी असंभव नहीं था। लेकिन वह अपनी असहायता के कारण कुछ भी न कहने के लिए बाध्य थी। घर की देख-भाल अब वह करती थी।
राकेश फिर आकर सामने खड़ा हो गया। बाकी सब पर्दे के अन्तराल में चले गये। वह बीच-बीच में आता था। पर उसे यह नहीं पता था कि इस बीच रोजी के पैर फिसल गये हैं। वह एक भीषण गड्ढ़े में गिर चुकी हैं, जहाँ से लौट आने का कोई उपाय नहीं है। राकेश की पढ़ाई चल रही थी। पुलिस सब इंस्पेक्टर की नौकरी मिलने के बाद अनुगोल शहर में ट्रेनिंग के लिए चला गया। छुट्टियों में आता था, तो मिलने आता था। वैसा ही प्यार, वैसी ही आत्मीयता थी। उसमें कोई बदलाव नहीं आया था। रोजी खुद को गुनाहगार मानती थी।
लेकिन कुछ कह नहीं पाता थी। राकेश आता तो सब को मना कर देती। मोबाइल बंद करके उसके साथ किसी एकान्त जगह चली जाती। उसके साथ खूब गपशप करती। उसके मन, हृदय, प्राण सब पर राकेश का अधिकार था। पर शरीर को बाकी सब सोचते रहते थे। वह पाप-बोध से आहत होती थी। वह राकेश के साथ छल करती थी। किन्तु राकेश को स्पर्श करने से घबराती थी। वह यह नहीं चाहती थी कि राकेश उसके पापासकक्त शरीर का स्पर्श करे। राकेश पुण्य, पावन, गंगाजल की तरह निर्मल और निष्पाप है।
वह हमेशा सुन्दर घर-संसार बनाने का सपना देखता और दिखाता था। ये प्रतिवाद करती नहीं तथी। छुट्टियाँ खत्म होते ही राकेश लौट जाता। फिर आता एकाध महीने के बाद। वह टेलीफोन करता, चिट्ठियाँ भेजता। चिट्ठियों में भरा रहता प्यार ही प्यार। रोजी के नजरों में वही सुपुरूष है। वही उसके मन का मानुष है, देह का नहीं। राकेश ट्रेनिंग खत्म करके नौकरी में जॉइन कर चुका था सुदूर बलांगीर शहर में। काम के दबाव और दूरी के कारण आना-जाना कम हो गया था। साल में एक या दो बार आ पाता था।
विवाह को लेकर घरवालों की जल्दी मचाने की बात उसे बताता। वह कुछ दिन और इंतजार करने को कहती। इतनी हड़बड़ी न मचाने की सलाह देती। मन-ही-मन सोचती कि दो भाइयों की इंजीनियरिंग की पढ़ाई खत्म हो जाए। दोनों बहनों की शादी का इंतजाम हो जाए। और दो साल लगेंगे। देखते ही देखते दिन निकल जाएँगे। फिर वह चली जाएगी इस शहर को छोड़कर बलांगीर और कभी नहीं लौटेगी। छोड़कर चली जाएगी दुर्गंधमय नर्क के क्या सभी कुकर्मों के मूक साक्षी इस शहर को। भोले-भाले राकेश को उसने जितना धोखा दिया है, जिन्दगी भर उसकी सेवा करके उस कर्ज से उबरना चाहेगी।
कभी-कभी वह डर जाती। उसके अतीत को यदि राकेश जान जाए तो। वह भी इसी शहर का युवक है। उसके भी कई रिशतेदार हैं यहाँ। कौन कह सकता है कि उसका कोई नातेदार उसके पास किसी दिन न आया हो ?
वह पाप का प्रायश्चित् करेगी। दो-दो बार एम.टी.पी. करा चुकने के बाद डाक्टर ने उसे सजग होने की ताकीद की थी। वरना भविष्य काफी महँगा पड़ सकता है। वैवाहिक जीवन में बच्चों के होने की संभावना कम हो सकती हैं। वह प्राइविट डाक्टर उस बूढ़े नेता के खास आदमी थे। प्रौढ़ भी थे। इस बात को गुप्त रखने के लिए नेता ने उन्हें कहा था। इसलिए बात फैली नहीं। वह भी डाक्टर के साथ सहज हो गयी थी। बीच-बीच में उनके पास जाँच कराती थी। दवाइयाँ लेती थी। डाक्टर उसके चाल-चलन से अवगत थे। उसे समझाते थे।
तुम अब जवान हो। खूबसूरत भी हो। तुम्हारा अपना भविष्य है। अतीत भुलाकर घर-गृहस्थी बसाओगी। इसलिए तुम्हें असुरक्षित यौन-सम्बन्ध से दूर रहना चाहिए। कंडोम इस्तेमाल करना चाहिए। लेकिन वह सोचती थी कि क्या हमेशा यह संभव है ?
आज वह समझ रही हैं कि डाक्टर ठीक कह रहे थे। वे काफी स्नेही और सज्जन थे। देवता जैसे व्यक्ति थे।
राकेश को पता नहीं है कि उसका जीवन स्खलित है। वह कई घाटों का पानी पी चुकी है। वह काफी अबोध होकर उस पर विश्वास कर रहा है। राकेश के साथ उसने जो विश्वासघात किया है, उसे सजा मिलनी चाहिए। वह किसी भी लड़की से शादी करके घर बसा सकता था। लेकिन वह उसे आशा और दिलासा देकर सपने दिखाती रही है। वह उन सपनों में डऊब कर, सपनों का एक साम्राज्य बना रहाहै। यथार्थ बिलकुल उल्टा है।
आग लग चुकी है उसकी दुनिया में, सपनों में। उसे पता चलेगा, तो वह टूट जाएगा। उससे नफरत करेगा। यह जानकर वह पछताएगा कि उसे कूब ठगा गया है।
लेकिन वह बच जाएगा। उससे वह प्यार करती है। पर वह इस लाइलाज बीमारी का शिकार नहीं हुआ हैं। उसने कभी भी उसे निबिड़ता से छूने नहीं दिया है। हमेशा उसे दूर ही रखा हैं। इंतजार करवाया है। यह इंतजार उसके लिए कल्याणकारी हुआ है। हो सकता हैं कि वह उसे थोड़े दिनों तक याद रखे। फिर नफरत के मारे धीरे-धीरे भूलने लगे। फिर से एक नया जीवन शुरू करे।
लेकिन बेणु मामा। छोटी बहने उसके जाल में फँसी तो नहीं हैं। उसे डर लगने लगा। पंखा तेजी से धूम रहा था, पर वह पसीने से तर-बतर हो रही थी। वह और आगे सोच नहीं सकी। और कौन बचेगा ? दोनों भाई उसकी तरह किसी लड़की के संपर्क में तो नहीं हैं ? वह बिस्तर से उठ बैठी । बिजली जलाई। टी.वी. के स्विच को ऑन किया। चैनल में ‘कहोना प्यार है’ फिल्म आ रही थी। एक गिलास ठण्डा पानी पीकर वह फिल्म देखने लगी। ह्रित्तिक रोशन और अमीषा पटेल की प्रेम कहानी को देखते-देखते और राकेश की बातें सोचते-सोचते उसे नींद आ गयी।
जब नींद टूटी तब तक काफी देर हो चुकी थी। कॉल बेंल दबाकर चाय मँगवायी। चाय पीकर फ्रेश हो गयी। उसे काफी चीजों की जरूरत थी। इसलिए तनिक हाथ-मुँह धोकर मार्केट चली गयी।
कपड़े की दुकान में सेल्समैन से साढ़ी दिखाने के लिए कहकर खड़ी हुई थी कि उसे लगा कोई रोजी कहकर पुकार रहा है। उसने पहली बार अनसुनी कर दी। इस शहर में उसे कौन पहचानता है। वह तो बीती रात यहाँ पहुँची है। फिर निकट से किसी के बुलाने की आवाज आयी। रोजी, रोजी। तुम यहाँ कहाँ ? राकेश की आवाज सुन कर वह चौंक उठी। राकेश यहाँ। वह भौचक रह गयी। राकेश बोलने लगा।
तुमने चिट्ठी में यह नहीं लिखा था कि तुम कलकत्ता आ रही हो। क्या काम था ?
रोजी नीरव, निर्वाक और निष्पन्द रह गयी। अविश्वास भरी आँखों से वह राकेश को निहारती रही। रोजी ने मन-ही-मन सोचा कि कहीं राकेश को सारी घटनाओं का पता तो नहीं चल गया ! राकेश ने फिर से कहा कि वह दो दिन पहले कलकत्ता आया था। किसी एक डकैती के सिलसिले में यह सुराग मिला कि डकैत इस थाने के इलाके में रह रहे हैं।
इसलिए एस.पी. ने कलकत्ता के इस थाने के साथ संपर्क करने के लिए उसे भेजा था। उसका काम खत्म हो गया है। उसे आज बलांगीर लौट जाना था। एस.पी. से कहकर दो दिन की छुट्टी ली है। आने वाला कल और परसों। यहं से भुवनेश्वर जाता । तुम्हारे लिए ही एक अच्छी साढ़ी खरीदने के लिए यहाँ आया हुआ है।
रोजी कुछ बोल नहीं सकी। कुछ भी न सुनने का अभिनय करती रही। जैसे उससे पहले कभी राकेश को देखा ही न हो। पहचानती न हो। राकेश की बात सुनते ही बाहर निकल गयी रोजी। राकेश भी बाहर जाने लगा। दूसरे ग्राहक, सेल्समैन और काउण्टर में बैठा हुआ मालिक सब उन्हें देखते रहे। दुकान से बाहर निकल कर रोजी तेज गति से भीड़ में खो जाने की कोशिश करने लगी। राकेशभी उसके पीछे-पीछे रोजी-रोजी की आवाज लगाते हुए भीड़ में उसका पीछा करने लगा। रोजी एक ही सीध में चली जा रही थी। उसके पीछे-पीछे राकेश। कुछ ही पलों में दोनों भीड़ में अन्तर्द्धान हो गये थे।